पृष्ठ:संक्षिप्त रामस्वयंवर.djvu/१५४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

१३८ रामस्वयंवरा सुनि सचिव पचन बिचारि भूप विदेश को उपहार । मिग्रिलेस फेर निदेस जम तस हमहु को स्वीकार ॥ अल फरिवशिष्ट नहाय स्पंदन नदयो स्यंदन आप। वाजत भये निहि लमय बाजन गिविध सुग्न कालापाटा परम फियो जिहि भांति परनन तीनि रीति एरात । गमनी सुमिथिला पंध गमि करिधूरि घुध अघात ॥ मानतु मही निज कुवरि व्याः बिचारि मति मुनमानि । मिसि रेनु हे विधिलोक को विधिको निमंत्रन जाति॥ ८१७) (छंद हरि गीतिका) 'रघुवंसफल की जय घगत गई मुगंडक तीर में। करि पान सुधा समान मेटे प्यास निर्मल नीर में। . आये वशिष्ठ समेत रघुकुलफेतु जर तिहि घाल में - तब विनय कीन विदेह सेवक राजमनि मुनि पास में १८१८| मिथिलाधिपति रचवाय राख्यो आप उतरन मंदिएँ। उत्तरी तहाँ चलि अवधपति जनु रच्यो निज कर इंदिरै॥ सुनि भूप मुदित पधारि कीन निवास बिमल अघास में । सैनिक सकल सरदार राजकुमार वसे सुपास में ॥८॥ जिहि वस्तु की रहि चाह जाको सुखन ने न बखानहीं।' दीन्हें वरातिन पूरि निकटहु दूरि सपन समानहीं। सय करहिं जनक यखान पंथ महान लखि सनमान को। सयको भयो अस भान कीन पयान निजहि मकान को। संध्या उपासन किया साझहि गंडकी तट जाय।..