१४१ . रामस्वयंघर। पैदरन कतारा सुभग गारा देव अकारा छवि छाये। तनु बसन सुरंगा भरे उमंगा जुरि इकसंगा तह आये ॥ मिथिलापुरयासी आनंदरासीसजि सजि खासी सिर पागै। कंचुक तनु कांधे कम्मर बाँधे उर सुख धांधे अनुराग।८३१॥ कोसल महराजू सहित समाजू आवत आजू सुखसानी । इतते सजि साजू निमिकुलराज गमनत कोजू अगवानी ॥ तापर मिथिलेसा चढयो सुवेसा मनहुँ सुबेसा सोहि रह्यो। लक्ष्मीनिधि प्यारो राजकुमारो तुरंग सवारो गैल गयो ॥८३२॥ बरसतानंद मुनि चदि स्यंदन पुनि चल्यो संग गुनि गाढ़सुखै। मुनि याशयल्स्य वर धर्मधुरंधर औरहु तपधर मुदित मुखै ॥ पुर ते छवि भारी कढ़ी सवारी भै घहरारी चाकन की। बहु बजे सुहावन बाजन पावन निज धुनि छावन नाकन की८३३॥ दस सुतर सवार जनक हकारे बचन उचारे तुम आवो । मम अरज सुनावो नप द्रत आवो विमल विहावो सुख छायो॥ द्रुत धावन धाये नृपदल आये वचन सुनाये दशरथ को। काहजनक प्रणामा दरसन कामा चलियहि यामा गहि पथका बाढ़ सुखमानी हित अगवानी आँखि लुभानी दरसन को। लावसद बराता आवहु ताता अव धन आता हरपन को। सुनि मैथिल बैना भरि उर चैना सजल सुनैना अवध-धनी। कह वचन तुरंता सुनह सुमंता नहि बिलवंता चलै अनी॥८३५॥ (दोहा) करहु सैन्य को शीघ्र ही दुतिया चंद्र अकार ।
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