पृष्ठ:संक्षिप्त रामस्वयंवर.djvu/१८०

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१६४ रामस्वयंवर। निज निज भासन वैठकुमारा । मंडप तर निज निज अनुहारा॥ तहँ कुशकेतु जनक दोउभाई । बैठाये सिगरे मुनिराई । शतानंद आनंद बढ़ाई। कह वशिष्ट कौशिक्षाहि सुनाई। गणपार्चन कराय अब दीजै । वेदी थापित पावक कीजै ।। मैं अब गवनहुँ जहाँ कुमारी । करिहौं चढ़न चढ़ाव तयारी - अस कहि सीता निकट सिधारयोरानि सुनैना वजन उचारयो चारिहु भगिनि केर सुखदानी । चढ़े चढ़ाउ आलु महरानी ॥ रानि सुनैना सुनि सुख पाई। भगिनि सहित सीतहि नहवाई नहळू चार मातु करवाई । भूषन बसन विमल पहिराई ।। पुरट पीठ पुनि भगिनि समेतू । बैठाई लिय सजनि निकेत् ॥ शतानंद सों पुनि कह रानी । चुक्यो चार इतको मुनि ज्ञानी । (दोहा) शतानंद आनंद मरिकह्यो सुनैनहि जाय। तहां जानकी जान की, गई घरी अन्न आय ॥६८५॥ (चौपाई) सुनत सखी लैलिय तहं गमनी। मंगल गीत गाय गजगमनी ॥ जहि लीय मंडप तर आई । उठ्यो अनंदित कोशलराई। उठि सुर मुनि मन महँ तिहिठामा । जगदंगा कहं कीन्ह प्रणामा लिय-जुततीनिहु बहिनि सुहाई। दिय संमुख मुनिघर बैठाई । कुंवरिन पीछे बैठ विदेह । सहित अनुज कुशशेतु सलेहू ॥ रानी तहाँ सुनैना भाई : तिमि कुशध्वज-रमनी छचि छाई ।। निज निज पतिदाहिनि दिसि बैठीं। मानहुँ मोद महोदधि पैठीं।