पृष्ठ:संक्षिप्त रामस्वयंवर.djvu/१९७

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रामस्वयंचर १८१ सीयमातु कुशकेतु-कामिनी सिद्धि समेत बुलाई। वैठि सिखावहिं जोहि जानकिहि पतिव्रत धर्म बताई ॥ दशरथ सरिस श्वसुर जग में नहि जनक जनक सम पाई। कंत भानुकल-कमल दिवाकर तुहि सम द्वितिय न जाई॥११॥ रखो सदा पति को रख राखत परिहरिसर सुख प्यारी। पति सासन अनुसार काजलद फीन्यों धर्म बिचारी॥ सासु ससुर को पूजन करियो जनक जननि लम मानी । नातो जाको जीन होय कुल सोमागे जिय जानी ॥१८॥ चारिहु मगिनि मिली रहियो नित कबहुँ न होय विरोधू। जय सासुन को मान राखियो किहो न कवहूं कोधू ।। परदुख दुखी सुखी परसुख सो सबला हसि मुख भाख्यो। जथाजोग सत्कार सवन को करि लनेह सुठि गयो ॥११॥ (चौपाई) इते राम सुदिधल जिय जानी । बोलि पशिष्टहि बोले बानी ।। विदा करावन कुँवर पठायो । अवध गबन दुंदुभी बजाओ। तहँ वशिष्ठ मुनि शति सुख पाये। राम सहित सय वंधु वुलाये। कह्यो विदेह निवाल पधारो । यधू विदा करि मुदिन नटारो मानि राम गुरु पिता रजाई । बले विदेह महल सब भाई ॥ , नारी जुरि जुरि देखि उचारें । विदा करावन कुवर पधारें। दौरि दूत तिहि अवसर आये । मिथिलापति कह खबरि जनाये। आवत राजकुभर मन भाये । सोहत सखा संग छवि छाये। उठे भूप आये चलि आगे। राम दरल कह अति अनुराग