पृष्ठ:संक्षिप्त रामस्वयंवर.djvu/२४४

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२२८
रामस्वयंवर।

२२८ रामस्वयंवर। कहा गगन ते त्राहि त्राहि प्रभु मैं रिपुर्वधु विख्याता। होहुँ सरन रावरे कृपानिधि तुम मेरे अब बाताः ।। सुनत राम सव सचिव बुलाये कहहु मंत्र का होई। निज निज मत तहँ कहो विभीयग आवत में सब कोई ॥४२३॥ वाले प्रभु सव सुनहु मोर मत यामें नहिं संदेह । एक बार जो कहत तार मैं. ताहि अभय करि देह ॥ अस कहि पटै लपन करुनाकर लिया विभीषण आनी । लेकराज को राज तिलक कर दिया बंधु सम मानी ॥२॥ रचहु सेतु सागर महँ लै कपि अति आसुहि दोउ वीरा।। सुनि सासन रघुनायक को तह अङ्गदादि रनधीरा.॥ तरुन गिरिनगन महा सिलागन ल्याये आसु उखारी। पांच दिवल महँ सत जोजन ला रचे सेतु अति भारी ॥४२५॥ चली सैर कछु बरनि जाति नहिं नम सागर उपमाई। वानरेस लंकेल उभय दिसि और वीर समुदाई ॥ . सिंधु पार वानरीवाहिनी पहुंची सैल सुवेला। डेरा परे लंक परिखा छवै अरु छवै सागरचेला ॥ ४२६॥ लका दुर्ग को घेरना ... - (छंद चौवोला) इतै रोम अरु लषन वैठि सव मंत्रिन तुरत बुलाया। पवन-सुवन अरु ऋच्छराज. दशकंठ-अनुजहू आयोः ॥