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पृष्ठ:संक्षिप्त रामस्वयंवर.djvu/२५

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रामस्वयंवर।

तेहि पीछे पुनि कह्यो ऐसहू अवै न तजु संसारा।
दसरथ भूपति-भवन भुवनपति लैहैं नर-अवतारा॥४॥
सनत्कुमार दरस हित मुनिजन औरौ तहँ चलि आये।
तिनके सन्मुख पुनि मुनिपति मोहिं ऐसे बचन सुनाये॥
कश्यप-तनय विभांडक ह्वैहैं जाहिर सकल जहाना।
श्रृंगी ऋषि तिनके सुत ह्वैहैंं कानन में अस्थाना॥४२॥
वर्धमान ह्वैहैंं आश्रम में वनचर संग विहारी।
फछु संसारचार जनिहैं नहिं पितु सेवा सुखकारी।।
नारी-पुरुष-भेद जनिहैं नहिं ब्रह्मचर्य महँ राते।
महा महात्मा लिद्धसिरोमनि सकल जगत विख्याते॥४३॥
अग्निहोत्र ठानत पितु सेवत वीति जाइ बहु काला।
अंग देस महँ रोमपाद यक ह्वैहैं कोउ भूपाला॥
धर्म व्यतिक्रम करी भूप जव अनावृष्टि तव हाई।
परी महादुर्मिच्छ राज्य में प्रजा दुखित सब रोई॥४४॥

(दोहा)

निरखि चार दुर्मिच्छ तह, भूप दुखी मन माहिंं।
बोलि वृद्ध पंडित द्विजन, नृप कहिहै तिन पाहिं॥४५॥

(छंद चौयोला)

प्रायश्चित्त करावहु मोकहँ मिटै महा दुर्भिन्छा।
हरवर होइ प्रजा प्रमुदित सब पृथिवी पाय सुभिच्छा।।
सुनि नृप वचन वेदविद ब्राह्मण वोले बचन बिचारी।
सुवन विमांडक मुनि श्रृंगी ऋषि आनहु इत तपधारी॥४६।।