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पृष्ठ:संक्षिप्त रामस्वयंवर.djvu/२५९

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रामस्वयंवर।

रामस्वयंवर। कंदुक इव उडिगयो गगन पुनि सुमिरत रामप्रताप । राम समीप आय वानरपति गयो चरन विन ताप ॥ नासा कर्ण विहीन महाभट वहत रुधिर की धार । करि गलानि मन कुंभकर्ण तह कीन्हो मरन विचार ॥५२४॥ लौटि चल्यो पुनि समर हेत सठ ले कर मुद्गर घोर । प्रविस्थो पुनि वानरी वाहिनी लग्यो खान चहुँ ओर ॥ सज्यो समर महं सूर सिरोमनि लै धनु दशरथलाल। रौद्र अस्त्र कह करि प्रयोग प्रभुछोड़े विसिख विसाल ॥१२५ जिन चानन में एक वान सो वालि विनास्यो राम । खर दूपन घिसिरा कह बेध्यो सप्तताल अभिराम ॥ ते सर कुंभकर्ण के तनु मह व्यथा करत कछु नाहि । तजत बानधारा रघुनायक बैंचि बँचि धनु काहिं ॥५२६॥ दियो रामसासन कपि वृदन चढ़ि तनु देहु गिराय। धाय बलीमुख चढ़े तासु तनु रह्यो सोउ ठहराय॥ जब जान्यो चढ़ि आये मर्कट दीन्हो देह कंपाय। कोटि द्वैक झरि परे भूमि कपि लियोसर्वन कहं खाय ॥५२॥ यह अनरथ निहारि रघुनायक धनु सायकं कर धारि। धाये कुभकर्ण पर कोपित चार वार ललकारि॥ सुनि वानी कोमल रघुपति की जानि राम यहि टोर। कुभकर्ण पुनि कह्यो चैन अस सुनिये राजकिसोर ॥५२८॥ देखो मुद्गर मोर भयावन कपिदल नासनहार । रघुनायक विक्रम दरसाबहु जो कछु होय तुम्हार॥