पृष्ठ:संक्षिप्त रामस्वयंवर.djvu/२६०

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२४४
रामस्वयंवर।

२४४ रामस्वयंवर। अस कहि घायो राम ओर खल प्रभु पवनास्त्र चलाय। मुद्गर सहित काटि डालो भुज गिसो कपीन उपाय ॥५२६॥ तब रावण को अनुज कोप करि धायो ताल उखारि । ताल सहित काट्यो भुज सोऊ इंद्र अस्त्र प्रभु मारि ॥ चपे निसाचर वानरहूँ बहु दवे मतंग तुरंग । पुनि दिव्यास्त्र मारिरघुकुलमनिकियो जंघ जुगभंग॥५३०॥ उड़यो गगन मह राहुंसरिस सठप्रभुसर मुखभरिदीन। इंद्र अस्त्र पुनि योजि राम धनु कियो प्रहार प्रवीन । कुम्भकर्ण को गयो सीस कटि गिरो लंक महं जाय । गृह गोपुर प्राकार फोरिकै गिरि सो पसो दिखाय ॥५३१॥ भागे; जातुधान मारे - कपि गवने रावण द्वार। • : भरे भीति लखि कपिन जीति रन कीन्हे विकल पुकार। महाराज तुव बंधु विक्रमी करि कोटिन कपि नास । राम वान लगि गयो ब्रह्मपुर करि जग सुजस प्रकास ॥५३२॥ , . , . . (दोहा) - कुंभकर्ण को निधन सुनि, लहि दसमुख दुख भूरि। कीन्ह्या विविध विलाप तह, विजय आस भइ दूरि ॥५३३॥ .. (छंद चौवोला) : । अति दुखित लखि पितुं को कह्यो घननादबंचन उदंड! - मेरे जियत नहिं सोच कीजे निरखि सम भुज दंड । बोल्यो दशानन व्यथित ओनन है भरोसों तोर । • जिहि भाँति जीतें कपिन को सो करो विक्रम घोर ॥५३४॥