२६० रामस्वयंवर। सीता पग सौ इत चलि आवै । लंका बहुरि पालकी जावै॥ प्रभुसासन सुनि जनक कुमारी । तजि सिविका पैदर पगुधारी।। चलत विभीषण के सिय पीछे। ताकति पतिमुख नयन तिरीछे।। (दोहा) बोले राम पुकारि कै लखहु सीय कपिवाद । जाके हित निज जीव की तजे छोह छल छंद ॥५५५।। सफल भयोममश्रम सकल विक्रम दियो दिखाइ । मोर अनादर मोर रिपु परत न जगत लखाइ ॥५५॥ (चौपाई) प्रन पूरन कीन्यो रिपु मारी । जो सिय हसो लोक दुखकारी ।। नहिं क्षत्रिय जो निज अपमाना। नासै करिविक्रम विधि नाना। 'कीन्ह्यो सकल हेतु मैं अपने। निज हित जानु सीय नहिं सपने ॥ तुहि रिपु-भवन वसत सुख रीते । जनकसुता दस मास व्यतीते।। करौं कौन विधि ग्रहन तुम्हारा । परघर वसत गहत कोदारा ।। पीतम वचन सुनत सुकुमारी। मृगी सरिस ढारति द्वग वारी ।। जस तसकै धीरज धरि सीता । बोली वचन होत मन भीता ॥ नाथ चरन तजि कहँ अव नहीं। तुम्हरे देखत देह दहेहौं। ताते जिअव उचित नहिं मोरा । तुमहिं त्यागि जैहाँ केहि ठोरा ॥ लपन रहे ग ढारत वारी । तासों कहो विदेहकुमारी ।। देहु लपन अव चिता वनाई । यह कुरोग कर यह उपाई॥ लपनलस्योरघुपति की ओरा । कहि न सकत प्रभु भयभरि भोरा।।
पृष्ठ:संक्षिप्त रामस्वयंवर.djvu/२७६
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