पृष्ठ:संक्षिप्त रामस्वयंवर.djvu/३६

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'रामवयंबर। प्राजापत्य पुरुष मोहिं जानो तुव हित लेतहि आयो। तब कर जोर कह्यो कोशलपति हे प्रभुभले सिधाया ॥१०॥ कहहु प्रसन्न बदन अब मोसन करहुं कौन लेवकाई। प्राजापत्य पुरुष तब बोल्यो बार बार मुसकाई ॥ देवन को पूजन तुम कीन्हों ताको फल यह आयो। धन अरोगवर्द्धन सुतदायक तुन हित देव वनायो ॥१०॥ लेहु दिव्य पायस भूपतिमनि दीजै रानिन जाई । अवसि पाइहौ चारि पुत्र तुम जेहि हित यज्ञ कराई । जे अनुरूप पटरानी तव तिन भोजन हित दीजै । पाय प्रवल सुत चारि चक्रवर्ती महि राज करीजै ॥१०२॥ तव नरेस अतिसय प्रसन्न है शिर धरि लीन्हों थारी । । देवदत्त देवान्न प्रपूरित कनकमयी छबिवारी ॥ " प्राजापत्य पुरुष चरनन को बंद्यो वारहि बारा । जन्म रंक जिमि लहै देवातुमतिमि सुख लद्या अपारा ॥१०॥ तीन पुरुष को दै परदच्छिन भयो कृतारथ राजा। सोऊ अंतर्धान भयो फरि अवधराज कर काजा॥ पुत्रइष्टि अद्भुत करि भूपति किय समाप्त सविधाना । वजन लगे तव अवध नगर में थलथल निकर निसाना॥१०॥ कनक थार लै भूभरतार अपार अनंद प्रकासा। सजल नैन पुलकित शरीर द्रुत गो रनिवास अवासा॥ थचन कह्यो अति मंजु मनोहर कौशल्या गृह जाई । सुमुखि सयानि लेहु यह पायस सुतदायक सुखदाई ॥१०॥