रामस्वयंवर। २१ जो सुरसरि के निकट वहति मरकत सम नीर गंभीरा ॥ वाल्मीकि को शिप्य विचच्छन भरद्वाज जेहि नामा। लै मुनि-बसनफलसकुस आदिक गयो संग मतिधामा||१११ शिष्य-पानि ते लैवल्कल निज इंद्रियजित मुनिनाथा। विचरन लाग्यो विपिन बिलोकत रह्यो न तह कोउ साथा ॥ तव निषाद आयो इक पापी मुनि के लखत तहाँहीं। मारयो मिथुन विहंग वान इक मरयो क्रौंच छन माहीं ॥१५२॥ (दोहा) लगत वाण तलफत विहंग, परयो सशोनित गात । हत पति देखि फरांकुली, रोदन किया अघात ॥११॥ करुना-बरुनालय ललित, अतिसय मृदुल सुभाव । सजल नयन मंजुल चयन, बोलत भे ऋषिराव ॥११४॥ घाल्मीकि भाप्यो वचन, तेहि निषाद प्रति जौन। छंदरूप है सारदा, प्रकट भई भुव तान ॥११५॥ जद्यपि साधारन कह्यो, वाल्मीकि मुनिराज । छंद अनुष्टुप वचन ते, प्रगट्यो द्रुतहिं दराज ॥११६॥ (श्लोक) मा निपाद प्रतिष्ठान्त्वमगमः शाश्वतीस्समाः। यत्क्रौञ्चमिथुनादेकमवधीः काममोहितम् ॥१॥ (छंद चौधोला) चिंतत बार वार चित में मुनि बहुरि बुद्धि यह आई। 'छंदवद्ध अश्लोक भयो यह राखहुँ नाहि छिपाई ॥
पृष्ठ:संक्षिप्त रामस्वयंवर.djvu/३८
दिखावट