रामस्वयंवर। वाल्मीकि ऐसो मन में गुनि भरद्वाज कहँ बोले। कह्यो वचन अतिसय उरविस्मित निज आसयसव खोले । अक्षर सम तंत्री लय संजुत परम मनोहर वैना । भयो सोक अश्लोक कहत मम और फछु यह है ना ॥ फरी कंठ भूलन नहिं पावै कारन कछुक देखाता। भरद्वाज फिय कंठ तवै गुरु भे प्रसन्न अयदाता ॥११८॥ शिप्य सहित मुनि धर्मधुरंधर आसुहि आत्रम आये। पैठि कथत बहु कथा वृथा नहिं चित अश्लोक लगाये॥ वाल्मीकि के देखन के हित चतुरानन चलि आये। सकल लोककरता जगभरता तहं अति तेजहिं छाये ॥११॥ प्रमुदित वैठ्यो जवै पितामह लोक ओक करतारा । मुनि ससोक अश्लोक विचारत कछु नहिं वचन उचारा॥ यहि विधिसोचत लखि महर्पिको हर्षि सुवर्षि अमी को। कह्यो वचन विधि विहसि कियोमुनियह अलोकहिनीको। मम प्रसाद ते प्रगट भई यह सरस्वती मुख तेरे । यहि विधि रचहु महामुनि मंजुल रामचरित्र घनेरे ॥ राम लपन सिय चरित मनोहर रजनीचरगन केरी। गुप्त प्रकासित चारु चरित सब जून नवीन घनेरो ॥१२॥ (दोहा) तब लगि राम कथा विमल, तव निर्मित मुनिराय । चलिहै चार विचार विन, तीनि लोक ले जाय ॥१२॥
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