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पृष्ठ:संक्षिप्त रामस्वयंवर.djvu/८५

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रामस्वयंबर। कोउड़ाय देतो अंबर में,कादरकुटिलकूर कौन फल मारे हैं॥३७६ः भाषि रघुवीर सनधानि एक तीर धनु, मानवास्त्र को प्रयोग कीन्हों मंत्र पढ़िक। बैंचि गुन कान लों समान पवि सोर कैकै, तकि उर अरि को चलायो चान चढिकै॥ भने रघु. राज राम सायक उड़ायो ताहि, फेक्यो सत जोजन समुद्र ते कदिक। भ्रमत भ्रमत गिरयौ अतिहि अचेत हैकै, वस्योपारावार पार आयो नाहि चढिकै ॥३७॥ (छंद मोतीदाम) मारीच को लखि राम । बोले सु करुना-धाम ॥ कीन्हो न तेहि विन प्रान । लखि लेहु ल पन सुजान ॥३७८॥ राक्षस अनेक प्रचंड । आवत इतै बरिचंड ॥ हनिहीं निसाचर वृंद । बचिहैं न करिबहु फंद ॥३७६।। उत उड़त लखि मारीच । सुभवाहु कोप्यो नीच ।। बोल्यो भटन ललकारि करि कठिन करतरवारि ॥३८०॥ धोखो दियो मुनि मोहिं ।मैं लिय प्रथम नहिं जाहि॥ ल्यायो कुमार वोलाय । निज करन हेत सहाय ॥३८॥ (छंद पद्धरी) मारीच बहुरि आवत तुरंत । हम करव उभै द्विजवंस अंत ॥ यचिहैं न धेनु धरनी मंझार निहिं रह्यो धर्म को कहुँ प्रचार॥३८॥ कहि यों सुबाहु करिघोर सार। धायो तुरंत जनपकिलोर॥ बोल्या प्रगर्भ वानी कठोर । धोखे उठाय दिय भ्रात मोर॥३८३॥