पृष्ठ:संक्षिप्त रामस्वयंवर.djvu/८७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

रामस्वयंवर। . ७२ 'पदजानहु जंघभुजा सिर को।किय खंड अखंडर थिर को॥३८६।। दोउ बंधु खड़े रन जीति जहां । चलि.आवत भे मुनिनाथ तहां। जुत पंधुलखे रघुनंदन को। जिन काटि दियो दुख द्वंदन को॥३६॥ (दोहा) आनंद-बस मुनिनाथ सों, बोलि न आया चैन । लखन लगे दोउ बंधु की, सोभा अनमिख नैन ॥३६॥ . रघुपति-सासन पाय के, मुनि अरंभ मख कीन। सबिधि सात्विज जाग की, पूर्णाहुति करि दीन ॥३६॥ मुनि मोदित मन में भये, जानि सयन को काल । सुखी सयन कीन्हे सुचित, तिमि सोये रघुलाल ॥३३॥ सिद्धाश्रम सेवित सुखो, लषन राम मुनित्रात । आनंदप्रद प्रगटयो तहां, निसा-प्रयान-प्रभात ॥३६४॥ (चौपाई) उठेराम तब लपन जगायो । तजि आलस सुनिपद सिरनायो। प्रातकृत्य करि सविधि नहाये अर्ध्य प्रदान दीन सुख छाय॥३६५॥ मुनि आश्रम मजन करि आये । पूजन हवन कियो सुख छाये ।। सहज सुभाउ सहज दोउ भाई । कौशिक लियो अंक वैठाई॥३६॥ समय जानि बोले रघुराई । सुनहु मोरि बिनतो मुनिराई ।। अब जो सासन करहु मुनीसा । सेोकरिही निसंकरिसीसा॥ सासन होइ अवधपुर जाऊं। मातु पिता कह सुखी बनाऊं।। सुनि विनीत मंजुल प्रभुबानी। कौशिक भन्यो त्रिकाल विज्ञानी। देखि देखि देसन रघुराई । जाहु भवन कहं आनंददाई॥