पृष्ठ:संक्षिप्त रामस्वयंवर.djvu/९७

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' रामस्वयंवर । हुलसत कोक असोक होग हित तारावलि चिलगानी॥ मुनिनायक-युत रघुनायक उठि प्रातकर्म सब कीन्हे । मुनिमंडली सहित रघुनंदन जनकनगर पथ लीन्हे ॥४५३॥ आगे आगे चलत गाधिसुत पाछे राजकुमारा। पहुँचे जनकनगर उपवन हेमंत वसंत बहारा॥ यज्ञथली भुवि भलो जनकपुर राम लषन अस भाखे। सुनहु महामुनिनाथ जनक नृप अति सुंदर करि राखे ॥४५॥ जनकनगर महँ होत स्वयंवर धनुपयश संभारा। देखन को देसन देसन ते आये भूप हजारा॥ महाभीर भूपति के पुर में लाखन विप्र जुहाने । चारिहुँ बरन अनेकन आये यज्ञ लखन ललचाने ॥४५५॥ ताते करहु निवास महामुनि जहां स्वच्छ थल होई । जहां जलासय होय विमल अति सहसा जाय न कोई ।। मुनि मुनि वचन पाय आनंद अति चले पंथ तजि दुरी। देखे यक थल सकल हर्प भल बिमल जलासय पूरी ॥४५६॥ सीतल अमराई छवि छाई, मंजु विहंगन सोग। अति इकांत जहँ होत सांत चित विगत मलिन सब ठोरा। वहत नदी अति निकट सुगम तट साखा सलिल विलो। मधुकर गुंजनि कुंजनि जनि मंजु पुज तरु झोरी ४५७॥ सकल सुपास निवास जोग थल लखि मुनि लषन खरारी। कीन्हे वास हुलास भरे सब भयो नास श्रम भारी॥ देखत जनकनगर की सोभा लोभा मन अविकारी ।