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- सङ्गीत विशारद *
१०७ ११-इस पद्धति में मध्यम स्वर महत्वपूर्ण माना जाता है, इसे अध्वदर्शक स्वर कहा जाता है क्योंकि इससे दिन रात के रागों को गाने का समय निर्धारित होता है । १२-जिन रागों में ग नि कोमल लगते हैं, वे दोपहर को या आधी रात को ही अधिकतर गाये जाते हैं। १३-संधिप्रकाश रागों के बाद प्रायः रे ग ध नि शुद्ध लगने वाले राग गाये जाते हैं। १४-षड़ज, मध्यम और पञ्चम यह तीन स्वर प्रायः दिन और रात्रि के तीसरे प्रहर के रागों में अपना महत्व विशेष रूप से रखते हैं । १५-तीव्र मध्यम अधिकतर रात्रि के रागों में ही पाया जाता है, दिन के रागों में यह स्वर कम दिखाई देता है। १६-सा, म, प यह स्वर पूर्वाङ्ग और उत्तराङ्ग दोनों भागों में ही होते हैं, अतः जो राग प्रत्येक समय ( सर्वकालिक ) गाये जाने वाले होते हैं, उनमें इन तीन स्वरों में से कोई एक वादी होता है। १७-मध्यम और पञ्चम यह दोनों स्वर एक साथ किसी भी राग में वर्जित नहीं होते । प वर्जित होगा तो म मौजूद होगा और म वर्जित होगा तो प मौजूद होगा । १८-किसी भी राग में षड़ज स्वर वर्जित नहीं होता । १६-रागों में प्रायः एक ही स्वर के दो रूप (कोमल तीव्र ) पास-पास नहीं आने चाहिए, किन्तु ललित इत्यादि कुछ राग इस नियम के अपवाद हैं । २०-अपने नियत समय पर गाने से ही राग सुन्दर लगता है, किन्तु राज दरबार तथा रंगमंच ( स्टेज ) पर यह नियम शिथिल भी हो जाता है। २१-तीव्र म के साथ कोमल नि बहुत कम रागों में आता है। २२-दोनों मध्यम लगने वाले रागों में कुछ-कुछ एकरूपता पाई जाती है, इनकी भिन्नता प्रायः आरोह में ही दिखाई देती है। ऐसे रागों का अन्तरा बहुत कुछ मिलता जुलता होता है। २३-रात्रि के प्रथम प्रहर में जब दोनों मध्यम वाले राग गाये जाते हैं, उनका एक साधारण सा नियम यह है कि शुद्ध मध्यम तो आरोहावरोह दोनों में लगता है, किन्तु तीव्र में केवल आरोह में ही दिखाई देता है तथा शुद्ध मध्यम की अपेक्षा तीव्र मध्यम का उपयोग दोनों मध्यम वाले रागों में कम पाया जाता है। २४-रात्रि के प्रथम प्रहर वाले रागों में एक नियम यह भी दिखाई देता है कि उनके आरोह में निषाद वक्र और अवरोह में गान्धार वक्र रूप से लगता है। ऐसे रागों के अवरोह में प्रायः निषाद दुर्बल दिखाई देता है । २५-हिन्दुस्तानी पद्धति में ताल की अपेक्षा राग को अधिक महत्व दिया गया है । इसके विरुद्ध कर्नाटकी पद्धति में राग की अपेक्षा ताल का महत्व अधिक माना गया है।