११६
- सङ्गीत विशारद *
'मङ्गीत रत्नाकर' ग्रन्थ मे गायको के गुणों के बारे में इस प्रकार लिया है । गायक के गुण- हृद्यशब्दः सुशारीरो ग्रहमोनविचक्षणः । रागरागांगभापांगक्रियागोपागकोविदः प्रबन्धगाननिष्णातो पिनिधालप्तितचवित । सर्वस्थानोच्चगमफेवनायासलसद्गतिः ।। आयत्तकण्ठस्तालजः मावधानो जितश्रमः । शुदच्छायालगाभिज्ञः सर्वकाविशेषवित् ।। अपारस्थायसंचारः सर्वदोपविवर्जितः । क्रियापरोऽजसलयः सुघटो धारणान्वितः ।। स्फूर्जन्निर्जननो हारिरहः कृद्भजनोधुरः । सुसप्रदायो गीतजीयते गायनाग्रणीः ॥ भावार्थ- १ हृद्यशब्द-जिसका शब्द यानी आवाज मधुर व सुरीली हो । २ सुशारीर-जिसकी वाणी मे अभ्यास के विना राग स्वरूप व्यक्त करने का धर्म ( तासीर ) हो। ३ गृहमोविचक्षण -गृह और न्यास के नियमो को जानने वाला हो (गृह न्यास की विवेघना इसी पुस्तक में दे दीगई है)। ४ रागरागागादिकोविद -राग रागाग इत्यादि का जानकार हो (देशी सगीत में रागाग, भापाङ्ग, क्रियाङ्ग ओर उपाग ऐसे चार भेद कहे गये हैं, उनका विवेचन भी इसी पुस्तक मे अन्यत्र दे दिया है) ५ प्रवन्धगाननिष्णात -प्रबन्ध गायन में प्रवीण हो (प्रबन्ध एक प्रकार प्राचीन गायन- शेली थी, किन्तु वर्तमान समय में प्रचलित नहीं है)। ६ विवधालप्तितत्ववित्-जो भिन्न-भिन्न अालमियो के तल का ज्ञाता हो। अर्थात् आलाप करने की गुढ बातें (राग का आविर्भाव तिरोभार दिसाने की कला ) जानता हो। ७ सर्वस्थानोच्चगमकेप्वनायासलसद्गति -मन स्थानों की गमक जो महज में ही ले मकता हो । अर्थात् मन्द्र, मध्य और तार, इन तीनों स्थानों में गमको का प्रयोग कर सके। श्रायत्तकण्ठ -जिसका कण्ठ (गला ) स्वाधीन हो, यानी खुली हुई आवाज हो ।