पृष्ठ:संगीत विशारद.djvu/११०

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  • सङ्गीत विशारद *

११७ ६ तालज्ञः-ताल का ज्ञान रखने वाला हो । १० सावधानः- एकाग्र चित्त होकर सावधानी पूर्वक जो गावे । ११ जितश्रमः-श्रम को जीतने वाला हो, अर्थात गाते समय यह अनुभव न हो कि गाने में बड़ा परिश्रम करना पड़ रहा है । १२ शुद्धच्छायालगाभिज्ञः-शुद्ध छायालग और संकीर्ण इन राग भेदों को जानने वाला हो ( इन राग भेदों की परिभाषा भी इस पुस्तक में अन्यत्र दी गई है )। १३-सर्वकाकुविशेषवित-सङ्गीत शास्त्रों में वणित पटविधि यानी छः प्रकार के काकुओं - का प्रयोग करने की जानकारी रखता हो ।* १४ अपारस्थायसंचार-गाते समय असंख्य स्थाय अर्थात रागों के भाग या हिस्से तैयार करके सुनाने का ज्ञान रखता हो। १५ सर्वदोपविवर्जितः-सब प्रकार के दोषों से रहित हो अर्थात जिसमे कोई दोप न हो । १६ क्रियापर-जो अभ्यास में दक्ष हो अर्थात रियाजी हो । १७ अजस्रलय-जो अत्यन्त लयदार हो । १८ सुघट:-जो सुघड़ (सुन्दर) हो, अर्थात जिसे देखकर श्रोता घृणा न करें । १६ धारणान्वितः-धारणावान हो । २० स्फूर्जन्निर्जवनः-"निर्जवन" यह स्थाय का एक विशेष भाग है, इस भाग को गाते समय मेघ गर्जना के समान गम्भीर आवाज निकालने वाला हो । २१ हारिरहः कृद्भजनोधुरः-अपने गायन से श्रोताओं के मन को मोहित करने वाला हो। २२ सुसम्प्रदाय:-जिसकी गुरु परम्परा उच्च श्रेणी की हो, यानी ऊँचे सम्प्रदाय का हो । गायक के अवगुण संदष्टोधृष्टसूत्कारिभीतशंकितकम्पिताः । कराली विकलः काकी वितालकरभोदडाः ॥ झोंबकस्तुबकी वक्री प्रसारी विनिमीलकः । विरसापस्वराव्यक्तस्थानभ्रष्टाव्यवस्थिताः मिश्रकोऽनवधानश्च तथाऽन्यः सानुनासिकः । पंचविंशतिरित्येते गायना निंदिता मताः ।। -सङ्गीतरत्नाकर , Il

  • सङ्गीत रत्नाकर में ६ प्रकार के काकुत्रों के नाम इस प्रकार दिये हैं हैं-(१) स्वरकाकु (२) रागकाकु

(३) देशकाकु (४) क्षेत्रकाकु (५) अन्यराग काकु (६) यन्त्रकाकु ।