१२४ गीत, गान्धर्व, गान तथा मार्ग-देशी संगीत रजकः स्वरसंदर्भो गीतमित्यभिधीयते । गान्धर्व गानमित्यस्य भेदद्वयमुदीरितम् ।। -सङ्गीत रलाकर गीत-स्वरों का वह समुदाय जिससे मन का रजन हो, उसे गीत कहते हैं । गीत के • भेट हैं--(१) गाव (२) गान । (१) गाधर्म-जो सगीत स्वर्गलोक में गन्धर्वो द्वारा गाया जाता था और जिसका उद्देश्य मोक्ष प्राप्ति है, उस वेदों के समान अपौरुपेय और अनादि सङ्गीत को ही "गापर्व" कहा है। () गान–जो मङ्गीत वाग्गेयकारों ने अर्थात सङ्गीत के पण्डितों ने अपने बुद्धि- कौशल्य से उत्पन्न किया तथा उसे लक्षणवद करके देशी रागों में उसका उपयोग कर लोकरजन के निमित्त उसे प्रचलित किया, वह "गान" है । सङ्गीत रत्नाकर के टीकाकार कल्लिनाथ के मतानुसार गाधर्व और गान को ही क्रमश मार्ग और देशी माना जाय तो कोई हानि नहीं । मार्ग सङ्गीत-मार्ग सगीत वर्तमान काल में विलकुल प्रचलित नहीं है। मार्गो देशीतितद्वधा तत्रमार्गः स उच्यते । यो मागितो चिरिच्यायें प्रयुक्तो भरतादिभिः ।। इस श्लोक के अनुसार मार्ग सङ्गीत वह है, जिसका प्रयोग महादेव के बाद भरत ने किया । यह अत्यन्त प्राचीन तथा कठोर सास्कृतिक धार्मिक नियमों से जकडा हुआ था, अत आगे इसका प्रचार ही बन्द होगया। देशी सङ्गीत-देश के विभिन्न भागों में छोटे-बड़े सभी लोग जिसे प्रेमपूर्वक गा-धजाकर अपना मन प्रसन्न करते हैं वह देशी सङ्गीत है। शादेव के समय में भी सर जगह देशी सङ्गीत ही प्रचलित था, किन्तु वर्तमान हिन्दुस्थानी सगीत से वह विलकुल भिन्न था। इसका कारण यही है कि देशी सगीत सर्वदा परिवर्तन शील रहा है, लोक रुचि के अनुसार उसका स्वरूप भी बदलता रहता है । देशी सङ्गीत में नियमों का विशेप बन्धन नहीं, इसलिये यह सुलभ और सरल है तथा लोक रुचि पर अवलम्बित रहता है । देशे देशे जनाना यद्रुच्या हृदयरजकम् । गान च वादनं नृत्य तद्देशीत्यभिधीयते ॥ सङ्गीत रत्नाकर अर्थात्-भिन्न-भिन्न देशों के जन ( मनुष्य ) अपनी-अपनी रुचि के अनुसार गा-जाफर और नाचकर प्रसन्नता प्राप्त करते हैं, या हृदय का रजन करते हैं, वह देशी सङ्गीत है।
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