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पृष्ठ:संगीत विशारद.djvu/१३

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  • सङ्गीत विशारद *

को शाश्वत नहीं बना पाते और न लोकप्रिय ही बना पाते हैं। सङ्गीत को किस प्रकार गुलदस्ते के समान काट-छाटकर दुरुस्त किया जाये, कैसे उसको विकसित किया जाये, कैसे एक रूप में अनेक रूपों का समन्वय किया जाये कि जिसमे उसकी मौलिकता नष्ट न हो, कैसे विभिन्न तथ्यों का एकीकरण करके उनमें अनुस्पता लाई जाए, कैसे उसके विभिन्न रूपों को एक सूत्र में पिरोया जाये, किम प्रकार प्राचीन और नवीन पद्धतियों एव शैलियो को आधुनिक साचे में ढालकर उनका जीवन वढाया जाय और किम प्रकार एक राग मे से अनेक राग निकालें जाये, आदि अनेक समस्याएं हैं, जिन्हें वर्तमान मङ्गीतकार सुलझाने में घबरा जाता है । इन सब सागीतिक समस्याओं को वही सङ्गीतन मुन्दर ढग से सुलझा सकता है जिसने सगीत के मूल तत्वों का भली भाति अध्ययन किया है, जो प्रमादी नहीं है, जो प्रत्येक सङ्गीत की पुस्तक को पढने के लिये सदैव तैयार रहता है और उसके अनुकूल आचरण भी करता है। आपकी छोटी-मोटी लाइब्रेरी आपकी दिशा में बहुत सहायता कर सकती है, बशर्ते कि आपके अन्दर सफल सगीतन बनने की पूर्ण इच्छा हो । मान लीजिये, आपकी आर्थिक स्थिति आपको कोई भी पुस्तक सरीदने के लिये अनुमति नहीं देती तो फिर आप उस अवस्था में हाथ पर हाथ रक्से मत बैठे रहिये, अपितु किसी सार्वजनिक पुस्तकालय में जाकर अपनी इन्छित पुस्तकों की सोज करिये और मिल जाने पर उसका अध्ययन कीजिये। जो व्यक्ति मफल सङ्गीतन बनने का दृढ सकल्प कर लेगा, उसे आर्थिक बाधायें कभी नहीं रोक पाती। मङ्गीत का आदर्श है, ज्ञान के सुनहले रत्नों को एकत्रित करके जाज्वल्यमान प्रासाद का निर्माण करना । उसका आदर्श है सार्वभौमिक मानव जीवन का एक्य एव सगठन । मनीतज्ञ को ऐसी सागीतिक रचना सृजन करनी चाहिये जो प्रान्तों एव देश की सीमाओं की विभिन्नताओं के रहते हुए भी एक अव्यक्त सूत्र में मानव हित तथा महयोग के विसरे हुए पल्लवों का बन्दनवार शिव और कल्याण की भावना से कला मन्दिर के चारों ओर वाध सफने योग्य हो। इस रम्य आदर्श की पूर्ति तभी हो सकती है, जबकि आप अपने शास्त्रीय (प्योरिटीफल ) ज्ञान की अभिवृद्वि करेंगे। तभी आपका मगीत शाश्वत जीवन का आकाश दीप बन सकेगा। तभी आप ऐसे संगीत का सृजन कर सकेंगे जो हमारी दष्टि को सर्वव्यापी बना सके । सकीर्णता के घने कुहरे को काट सके। आज हमारे सामने एक ही ध्वनि, एक ही रूप, बटले हार सुन्दर आकारों में रक्या जाता है। एक ही रचना को या एक ही राग को विभिन्न प्रकार के रग-बिरगे परिवान पहिराय जाते हैं, जैसे विभाकर की एक दीप्त रत्ति पातायन के रगीन शीशो मे प्रसूत होकर अवनि के विशाल अञ्चल पर इन्द्र धनुप अमित कर रही हो, जिसमें कोई स्थायित्व नहीं होता, जिसमें आसी को चौंधियाने वाली चमक तो अवश्य होती है लेकिन आत्मा को आलोकित करने वाला दिव्य तेज नहीं । सङ्गीतकारों को यह परिस्थिति वास्तविक ज्ञान के अभाव में हो गई है। इधर हमारे सगीतज्ञ अपने वास्तविक नान के अभाव में कुछ इधर-उधर भटक गये है और इन भटके हुओं का मुकार पश्चिमी सगीत की ओर हो गया है। पश्चिम के यथार्थवाट सागीतिक साहित्य ने हमारे सागीतिक व्यक्तित्व को प्रन्तुन्न कर ही लिया है, किन्तु साथ ही हम सगीत की विभिन्न मर्यादाओं को लापकर उच्छन्नलता के विशाल सण्डहर में भी जा गिरे, इसलिये हम राष्ट्र, वर्ग मम्प्रदाय में प्रेम के मरस गीतों कोगु जित न कर मके और न हम आज की भौतिकता के दामन मे स्वार्थ एव स्पर्धा के अस्तित्व को मिटा