पृष्ठ:संगीत विशारद.djvu/१४१

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मनीत और रहा . मानव जाति के अन्त करण मे वास करने वाली विशिष्ट भावनाओ के परमोत्कर्ष को ही शास्त्रनों ने 'रस' कहा है अथवा जब कोई स्वाभाविक वस्तु कुछ परिवर्तित होकर सन के अन्दर एक असाधारण नवीनता उत्पन्न कर देती है, तब उसे रस कहते हैं। साहित्य में नवरस माने गये हैं, यथा अगारहास्यकरुणरोद्रवीरभयानकाः । वीभत्सोद्भुत इत्यष्टौ रस शान्तस्तथा मतः॥ (१) अगार, (२)हास्य, (३) करण, (४) रौद्र, (५) वीर, (६) भयानक, (७) वीभत्स, (८) अद्भुत, (६) शान्त । सङ्गीत में केवल अङ्गार, वीर, करुण ओर शान्त इन चार रसों मे ही उपरोक्त नपरमों का समावेश माना गया है। हमारे प्राचीन शास्त्रकारो ने प्राचीन सप्त स्वरों के रस इम प्रकार बताये हैं सरी वीरेऽद्भुते रौद्रे धा वीभत्से भयानके । कार्यो ग नी तु करुणहास्यश्रंगारयोर्मपौ ।। अर्थात –मा, रे-वीर, रौद्र तथा अद्भुत के पोपक हैं । वीभत्स तथा भयानक रम का पोपफ है। ग, नि-करण रस के पोपफ हैं। म, प-हास्य व शृङ्गार रस के पोपक हैं। पण्डित भातग्यण्डे जी ने हिन्दुस्थानी मङ्गीत पद्वति में स्वरों के अनुसार रागो के जो ३ वर्ग नियत किये हैं, उन तीनों वर्गों में पण्डितजी ने रसों का समावेश इस प्रकार करने का सुझाव दिया है, यथा रेधु कोमल वाले सधिप्रकाश रागो में-शान्त व कमरणरस । ₹ध तीन वाले रागो में-शृङ्गार रस । गनि कोमल वाले रागा में वीर रम । यद्यपि प्राचीन प्रथकारों ने किसी एक सर से ही एक रम की सृष्टि बताई है, किन्तु वास्तव में देखा जाय तो केवल एक ही सर से किसी विशेष रस की उत्पत्ति होना मम्मर नहीं। उदाहरणार्थ-पहज स्वर को उन्होंने वीर रस प्रधान बताया है तथा पचम को शृङ्गार रम का स्वर माना है और हमारे प्राय सभी रागो में पडज या पश्चम स्वर अवश्य ई, तो इसका यह अर्थ हुआ कि मभी राग वीर रस या शृङ्गार रस प्रधान होने विचार हम प्रकार प्रगट किये हैं।