पृष्ठ:संगीत विशारद.djvu/१४२

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  1. सङ्गीत विशारद *

१५१ चाहिये थे; किन्तु वस्तुतः ऐसी बात नहीं है, अनेक रागों से विभिन्न रसों की सृष्टि होती है । निष्कर्ष यही निकलता है कि एक स्वर अपने अन्य सहयोगी स्वरों के साथ मिलकर ही रसोत्पत्ति करने में सफल होता है । कोई वादी स्वर अपने सम्वादी, अनुवादी या विवादी स्वर के सम्पर्क से ही किसी रस की सृष्टि करता है। शास्त्रीय स्वर योजना के अनुसार निश्चित ऋतु में, योग्य वातावरण को देखकर श्रोताओं की मनोभावना को समझते हुए कोई राग जब किसी योग्य गायक द्वारा गाया जावे तथा उसके गीत का काव्य भी उसी रस के अनुकूल हो, तो रस की उत्पत्ति अवश्य होगी, इसमें कोई सन्देह नहीं । इसके विपरीत यदि कोई गायक वीभत्स रस की स्वरावली में शान्त रस का गीत गाने लगे, तो रसोत्पत्ति कदापि नहीं हो सकती। जहां पर केवल स्वरों द्वारा ही रस की सृष्टि करनी है, वहां गीत को छोड़कर केवल स्वर-लहरी द्वारा भी रसोत्पत्ति की जा सकती है । स्वर और शब्दों से ही गीत का निर्माण होता है और जब गीत में स्वर ही न रहेंगे तो वह शब्दों की एक निरस रचना मात्र रह जायेगी, जो बिना स्वरों की सहायता के रस की सृष्टि करने मे सर्वथा असफल रहेगी। किसी एक ही शब्द द्वारा स्वरों की सहायता से विभिन्न रसों को उत्पन्न किया जा सकता है । जैसे 'आओ' यह शब्द लीजिये, । इसे जब करुण स्वरों में कहा जायेगा तो ऐसा मालूम होगा, मानो कोई सहायता के के लिए पुकार रहा है। इस प्रकार करुणा रस की सृष्टि होगी । और जब इसी शब्द को शृङ्गारिक स्वरों में कहा जायेगा तो ऐसा प्रतीत होगा, मानो कोई प्रेमी अपनी प्रेमिका को बुला रहा है; यहां शृङ्गार रस की सृष्टि होगी। कठोरता के स्वरों में इसी शब्द को कहा जाय, मानो लड़ने के लिये दुश्मन को चुनौती दी जा रही है, तब इसी 'आयो' से वीर रस की सृष्टि होगी। उपरोक्त उद्धरण से यह भलीभांति प्रकट है कि एक ही शब्द से विभिन्न रसों की सृष्टि केवल स्वर भेद के कारण हुई । अतः रसोत्पत्ति का मूल कारण स्वर ही माना जायेगा। काव्य द्वारा भी रुदन, क्रोध, भय, आश्चर्य, हास्य आदि भावों की सृष्टि तभी होती है, जबकि भिन्न शेली से उस कविता का उच्चारण हो और भिन्न शैली के उच्चारण में स्वरों का कुछ न कुछ अस्तित्व अवश्य ही होगा। वास्तव में देखा जाय तो प्रत्येक उच्चारण का सम्बन्ध नाद, स्वर और लय से है, यथाः- 5 आत्मा विवक्षमाणोऽयं मतः प्रेरयते मनः । देहस्थं मन्हिमाहंति सप्रेरयति मारुतम् ॥ ब्रह्मग्रन्थिस्थितः सोऽथ क्रमाचं पथे चरन् । नाभिहत्कंठमूर्धास्येष्वाविभवियते ध्वनिम् ॥ अर्थात् - "जब आत्मा को बोलने की इच्छा होती है, तब वह मन को प्रेरित करती है । मन देहस्थ अग्नि को प्रेरणा देता है, अग्नि वायु का चलन करती है, तब ब्रह्म ग्रंन्थिस्थ वायु क्रमशः ऊपर चढ़ती हुई नाभि, हृदय, कंठ, मूर्धा और मुख इन स्थानों से पाँच प्रकार के नाद (ध्वनि ) उत्पन्न करता है।" इन नादों का सम्बन्ध स्वर से है और स्वरों की सहायता से भावना तथा रस की उत्पत्ति होती है। जिस प्रकार स्वरों द्वारा