सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:संगीत विशारद.djvu/१७२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
  • सङ्गीत विशारद *

१८१ १२० तक गिनती गिनी जायगी तो निश्चय है कि गिनती की चाल तेज हो जायगी और तेजी का अर्थ है “द्रुत” । ठेका-तबले या मृदङ्ग के लिये प्राचीन शास्त्रकारों ने भिन्न-भिन्न बोल वैसी ही भाषा में बना दिये जो कि उन ताल वाद्यों से प्रकट होते हैं। उन्हीं बोलों को जब हम तबला या मृदङ्ग पर बजाते हैं, तब उसे ठेका कहते हैं। ठेका १ ही आवृति का होता है, जिसमें मात्रायें निश्चित होती है, उन्हीं निश्चित मात्राओं के अनुसार गाने-बजाने का नाप होता है । जैसे कहरवा ताल में ८ मात्रा हैं और इसके २ भाग हैं। प्रत्येक भाग में ४-४- मात्रा हैं, पहिली मात्रा पर सम और पांचवीं पर खाली है । इसे इस प्रकार लिखेंगे:- मात्रा- ८ १ २ ३ ५ ठेका- गि धा धि न ना ना तु. तालचिन्द + O यह कहरवा का ठेका हुआ, इसी प्रकार अन्य बहुत सी तालों के ठेके हैं। दुगुन-किसी ठेके को जब दूनीलय में बजाया जाय, यानी जितने समय में कोई ठेका एक बार बजाया गया था उतने ही समय में उसे २ बार कहा जाय या बजाया जाय तो उसे दुगुन कहेंगे। इसी प्रकार किसी गीत की स्थाई या अन्तरे को जितने समय में गाया जाय और फिर उतने ही समय में उसे २ बार गा दिया जाय तो वही 'दुगुन' कहलाती है । तिगुन, चौगुन-इसी प्रकार जब कोई ठेका या गीत १ मिनट में १ बार बजाया जाय और वही ठेका या गीत उतने ही समय में अर्थात् १ मिनट में ही ४ बार बजाया जाय या गाया जाय तो उसे चौगुन कहेंगे। एवं १ मिनट में ३ बार गाया-बजाया जाय तो तिगुन कहेंगे। आड़ी-कोई ठेका या गीत जिस मध्यलय में गाया बजाया जाय उससे ड्योढीलय में गाने-बजाने को आड़ी कहेंगे। मान लीजिये १ मिनट में ६० तक गिनती गिनी जा रही है और जब एक मिनट में ६० तक गिनती गिनने लगें तो वही 'आड़ी' कहलायेगी। क्वाड़ी-जिस ठेके की गति मध्यलय से सवाई होती है उसे क्वाड़ीलय कहते हैं। जैसे १ मिनट में ६० तक गिनती गिनी जारही थी और जब १ मिनट में ही ७५ तक गिनती गिनी जायेगी तो उसे 'क्वाड़ी' कहेंगे। वियाड़ी- इसी प्रकार एक मिनट में १०५ तक गिनती गिनी जायगी तो 'वियाड़ी' अर्थात् पौने दुगुनी लय हो जायगी। लय का विशेष विवरण आगामी पृष्ठों में ताल के साथ दिया गया है। सम-किसी ताल का वह स्थान जहां से गाना बजाना या-ताल का ठेका शुरू होता है । गायक वादक ऐसे स्थान पर सङ्गत करते हुए जब मिलते हैं तो एक विशेष प्रकार. का आनन्द आता है और श्रोताओं के मुंह से अनायास ही "आ" निकल जाती है