२०३ बाथाना परिचय वाद्यों के प्रकार भारतीय सभी वाद्यों को ४ श्रेणियों में बांटा गया है (१) तत्वाद्य (२) सुषिरवाद्य (३) अवनद्ध वाद्य (४) घनवाद्य । (१) तत्वाद्य--या तंतुवाद्य उन्हें कहते हैं जिनमें तारों के द्वारा स्वरों की उत्पत्ति होती है। इनमें भी २ श्रेणी बताते हैं ( १ ) तत्वाद्य (२) विततवाद्य । तत्वाद्य की श्रेणी में तार के वे साज़ आते हैं जिन्हें मिजराब या अन्य किसी वस्तु की टकोर देकर बजाते हैं, जैसे-वीणा, सितार, सरोद, तानपूरा, एकतारा, दुतारा इत्यादि । दूसरी वितत- वाद्य की श्रेणी में गज की सहायता से बजने वाले साज़ ( वाद्य) आते हैं, जैसे- इसराज, सारंगी, वायलिन इत्यादि । ( २ ) सुषिरवाद्य-- इस श्रेणी में फूंक या हवा से बजने वाले बाजे आते हैं, जैसे-बांसुरी, हारमोनियम, क्लारनेट, शहनाई, बीन, शंख इत्यादि । (३) अवनद्ध वाद्य--इस श्रेणी में चमड़े से मढ़े हुए तालवाद्य आते हैं, जैसे-मृदङ्ग, तबला, ढोलक, खंजरी, नगाड़ा, डमरू, ढोल इत्यादि । (४) धनवाद्य--वे हैं जिनमें चोट या आघात से स्वर उत्पन्न होते हैं, जैसे- जलतरङ्ग, मंजीरा, झांझ, करताल, घंटा तरङ्ग, पियानो इत्यादि । सितार- संक्षिप्त इतिहास तेरहवीं, चौदहवीं शताब्दी ( १२६६-१३१६ ई० ) में अलाउद्दीन खिलजी के दरबार में हज़रत अमीर खुसरो एक प्रसिद्ध कवि और सङ्गीतज्ञ हुए हैं, उन्होंने एक प्राचीन वीणा के आधार पर मध्यमादि वीणा बनाकर उसमें तीन तार चढ़ाये और उसका नाम “सेहतार" रक्खा । फारसी में 'सह' का अर्थ तीन होता है, सम्भवतः इसी आधार पर उन्होंने इस वीणा का नामकरण 'सेहतार' किया। इसमें दो पीतल के तथा १ लोहे का तार था और १४ परदे थे। पीतल के दोनों तार क्रमशः षड़ज और पंचम में मिलाये एवं लोहे का तार मध्यम में मिलाया गया। इसका तूम्बा आधा ही होता था और दांये हाथ की अंगुली में मिजराब चढ़ाकर इसे चाहे जिस प्रकार की बैठक से बजा सकते थे अर्थात् इसे बजाने में ऐसा कोई बन्धन नहीं था, कि किस प्रकार बैठना चाहिये । धीरे-धीरे इसमें तारों की संख्या बढ़ती रही । कहा जाता है कि १७१६ ई० में मुगल बादशाह मोहम्मद शाह के समय में इसमें ३ तार बढ़े, इस प्रकार यह छै तार का होकर
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