पृष्ठ:संगीत विशारद.djvu/३६

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३५ नाद, श्रुति और स्वर विवेचन नाद नकारं प्राणनामानं दकारमनलं विदुः । जातः प्राणाग्निसंयोगानेन नादोऽभिधीयते ॥ -सङ्गीतरत्नाकर अर्थात् 'नकार' यानी प्राण (वायु) वाचक तथा 'दकार' अग्नि वाचक है, अतः जो वायु और अग्नि के सम्बन्ध ( योग ) से उत्पन्न होता है, उसी को 'नाद' कहते हैं। आहतोऽनाहतश्चेति द्विधा नादो निगद्यते । सोयं प्रकाशते पिंडे तस्मात् पिंडोऽभिधीयते ॥ अर्थात् नाद के २ प्रकार माने जाते हैं, आहत तथा अनाहत । जो देह (पिण्ड ) से प्रकट हुआ है, उसे पिण्ड नाम प्राप्त होता है । ___ अनाहत नाद-जो नाद केवल ज्ञान से जाना जाता है, जिसके पैदा होने का कोई खास कारण न हो, यानी जो बिना संघर्ष या स्पर्श के पैदा हो जाय, उसे अनाहत नाद कहते हैं। जैसे दोनों कान जोर से बन्द करने पर भी अनुभव करके देखा जाय तो “घन्त-घन्न" या "साँय-साँय" की आवाज़ सुनाई देती है । इसी अनाहत नाद की उपासना हमारे प्राचीन ऋषि-मुनि करते थे। यह नाद मुक्तिदायक तो है, किन्तु रक्तिदायक नहीं । इसलिये यह सङ्गीतोपयोगी भी नहीं है, अर्थात् सङ्गीत से अनाहत नाद का कोई सम्बन्ध नहीं है। आहत नाद-जो कानों से सुनाई देता है और जो दो वस्तुओं के संघर्ष या रगड़ से पैदा होता है, उसे आहत नाद कहते हैं। इस नाद का सङ्गीत से विशेष सम्बन्ध है। यद्यपि अनाहत नाद को मुक्तिदाता माना गया है, किन्तु आहत नाद को भी भवसागर से पार लगाने वाला बताकर सङ्गीत दर्पण में दामोदर पण्डित ने लिखा है: स नादस्त्वाहतो लोके रंजको भवभंजकः । श्रुत्यादि द्वारतस्तस्मात्तदुत्पत्तिनिरूप्यते ॥ भावार्थ-आहत नाद व्यवहार में श्रुति इत्यादि (स्वर ग्राम मूर्च्छना) से रंजक ----. .धनकर भव-भंजक भी बन जाता है इस कारण उसकी उत्पत्ति का वर्णन करता हूँ।