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पृष्ठ:संगीत विशारद.djvu/६०

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सनात पार५ - लोचन के बाद बहुत समय तक मेल या थाट के बारे में कोई विशेष प्रगति नहीं हुई।. १६५५ ई० के लगभग श्री हृदयनारायण देव ने लोचन के उक्त थाटों के वर्गीकरण की पुष्टि करते हुए इस प्रकार व्याख्या की: १-भैरवी-शुद्ध स्वर 'सांशन्यासा च सम्पूर्णा षड्जादिभैरवीभवेत् । २-कर्नाट-'कर्णाटस्त्रय सम्पूर्णः षड्जादिः परिकीर्तितः ॥ ३-मुखारी-कोमल धैवत 'ध कोमला मुखारी स्यात्पूर्णाधादिक मूर्धना।' ४-टोड़ी -कोमलर्षभधैवतो, तीव्रतरगांधारनिषादौ च । कोमलर्षभधा पूर्णा गांशा तोड़ी निरूप्यते ।। ५-केदार-गांधार और निषाद । ६-यमन -तोव्रतर गान्धार, धैवत और निपाद । ७-मेघ८-हृदयराम-तीव्रतम गांधार, मध्यम और निषाद 'गस्यतीव्रतमत्वेऽथ तथा तीव्रतमौ मनी । इहैवोत्पीक्षिता पूर्णा हृदयाद्यारिभोच्यते ॥' ६-गौरी१०-सारंग११-पूर्वा१२-धनाश्री- . सत्रहवीं शताब्दी में थाटों के अन्तर्गत रागों का वर्गीकरण प्रचार में आगया था जो उस समय के प्रसिद्ध ग्रन्थ सङ्गीत पारिजात और रागविबोध से स्पष्ट है। इसी काल में श्रीनिवास ने मेल की परिभाषा करते हुए बताया कि राग की उत्पत्ति थाट से होती है और थाट के तीन रूप हो सकते हैं औड़व, पाड़व और संपूर्ण। उसके पश्चात सत्रहवीं शताब्दि के अन्त तक थाटों की संख्या में विद्वानों का विशेष मतभेद रहा। उदाहरणार्थ राग विबोध के लेखक ने थाटों की संख्या २३ बताई, स्वरमेलकलानिधि के लेखक ने २० बताये, चतुर्दण्डिप्रकाशिका के लेखक ने १६ लिखे आदि । दक्षिणी सङ्गीत पद्धति के विद्वान लेखक पं० व्यंकटमखी ने थाटों की संख्या निश्चित करने के लिये गणित का सहारा लिया और पूर्ण रूप से हिसाब लगाकर थाटों की कुल निश्चित संख्या ७२ बताई । इसके बारे में अपने दृढ़ विश्वास के साथ उन्होंने कहा कि इस संख्या में सङ्गीत के जनक भगवान शंकर भी घटाबढ़ी नहीं कर सकते । ७२ में से व्यंकटमखी ने १६ थाट काम चलाऊ चुनलिये, जिनकी तालिका आगे दी जायगी। व्यंकटमखी की इस थाढ