पृष्ठ:संगीत विशारद.djvu/७८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

८१ . नाद अर्थात आवाज़ की ऊँचाई और नीचाई के आधार पर उसके मन्द्र, मध्य और तार ऐसे तीन भेद माने जाते हैं। इनको “नाद' स्थान" ( Voice Register ) कहते हैं। इन तीन नाद स्थानों में एक-एक सप्तक मानकर क्रमशः मन्द्र सप्तक, मध्य सप्तक और तार सप्तक कहलाते हैं । इस प्रकार ३ सप्तक होती हैं । यथाः प्रथमं सप्तकं मन्द्रं द्वितीयं मध्यमं स्मृतम् । तृतीयं तारसंज्ञं स्यादवं स्थानत्रयं मतम् ॥ -अभिनवरागमंजरी अर्थात्-पहिली सप्तक को मन्द्र, दूसरी को मध्य और तीसरी सप्तक को तार सप्तक कहते हैं। इस प्रकार तीन सप्तक मानी गई हैं। सप्तक सप्तक-का अर्थ है सात । क्योंकि एक स्थान पर ७ शुद्ध स्वर निवास करते हैं, अतः इसका नाम 'सप्तक' हुआ। ध्वनि की साधारण ऊँचाई में जब मनुष्य बात करता है अथवा आ sss इस प्रकार आलाप लेता है, उसे 'मध्य सप्तक' कहते हैं, किन्तु जब कभी गाने बजाने में नीचे को आवाज ले जाने की आवश्यकता होती है, वहां पर “मन्द्र सप्तक” के स्वर काम देते हैं और जब मध्य सप्तक से भी ऊंचा गाने की आवश्यकता पड़ती है, तब "तार सप्तक" के स्वर स्तेमाल किये जाते हैं। मन्द्र सप्तक के स्वरों को बोलने या गाने में हृदय पर, मध्य सप्तक के स्वरों को बोलने में कण्ठ पर और तार सप्तक के स्वरों का व्यवहार करने पर तालू पर जोर लगाना पड़ता है। मन्द्र सप्तक-जिस सप्तक के स्वरों की आवाज़ सबसे नीची हो, अथवा मध्य सप्तक से आधी हो, उसे मन्द्र सप्तक कहते हैं, भातखंडे पद्धति में इसके स्वरों की पहिचान यह है: सा रे ग म प ध नि (मन्द्र सप्तक) मध्य सप्तक-मन्द्र सप्तक से दुगुनी आवाज़ होने पर मध्य सप्तक कहलाता है। मध्य का अर्थ है बीच, यानी न अधिक नीचा न अधिक ऊंचा। इसके स्वरों पर कोई चिन्ह नहीं होता। सा रे ग म प ध नि ( मध्य सप्तक) तार सप्तक-मध्य सप्तक से दुगुनी ऊँची आवाज होने पर तार सप्तक कहलाता है। इसे उच्च सप्तक भी कहते हैं। इसकी पहिचान के लिये स्वरों के ऊपर एक विन्दु लगा दिया जाता है, जैसे:_सां में गं मं नि ( तार सप्तक )