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संग्राम


राजे॰––मैं तो गाय जरूर लूंगी। गऊके पिना घर सूना मालूम होता है।

हलधर––मैं पहले तुम्हारे लिये कंगन बनवाकर तब दूसरी बात करूँगा। महाजनसे रुपये ले लूंगा। अनाज तौल दूंगा।

राजे॰––कंगन की इतनी क्या जल्दी है कि महाजनसे उधार लो। अभी पहले का भी तो कुछ देना है।

हलधर––जल्दी क्यों नहीं है। तुम्हारे मै केसे बुलावा आयेगा ही। किसी नये गहने बिना जाओगो तो तुम्हारे गांव घरके लोग मुझे हँसेंगे कि नहीं।

राजे॰––तो तुम बुलावा फेर देना। मैं करजा लेकर कंगन न बनवाऊँगी। हाँ, गाय पालना जरूरी है। किसानके घर गोरस न हो तो किसान कैसा! तुम्हारे लिये दूध रोटी कलेवा लाया करूंगी। बड़ी गाय लेना, चाहे दाम कुछ बेशी देना पड़ जाय।

हलघर––तुम्हें और हलका न होना पड़ेगा। अभी कुछ दिन आराम कर लो, फिर तो यह चक्की पीसनी ही है।

राजे॰––खेलना खाना भाग्यमें लिखा होता तो सास-ससुर क्यों सिधार जाते? मैं अभागिनी हूँ। आते ही आवे उन्हें घट कर गई। नारायण दें तो उनकी बरसी धूमसे करना।

हलदर––हाँ, यह तो मैं पहले ही सोच चुका हूँ, पर तुम्हारा