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संग्राम

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साहबने भाभीसे अपना प्रेम-रत्न छीन लिया है और बनावटी स्नेह और प्रणयसे इनको तस्कीन देना चाहते हैं। इस प्रेममूर्तिका अब परमात्मा ही मालिक है। (प्रगट) मैंने तो इधर ध्यान नहीं दिया। स्त्रियाँ सूक्ष्मदर्शी होती हैं......।

(खिदमतगार आता है। ज्ञानी चली जाती है)

कंचन--क्या काम है?

खिदमतगार--यह सरकारी लिफाफा आया है। चपरासी बाहर खड़ा है।

कंचन--(रसीदकी बहीपर हस्ताक्षर करके) यह सिपाही को दो।

(खिदमतगार चला जाता है)

अच्छा, गाँववालोंने मिलकर हलधरको छुड़ा लिया। अच्छा ही हुआ, मुझे उससे कोई दुश्मनी तो थी नहीं, मेरे रुपये वसूल हो गये। यह कार्रवाई न की जाती तो कभी रुपये न वसूल होते। इसीसे लोग कहते हैं कि नीचोंको जबतक खूब न दबावो उनकी गाँठ नहीं खुलती। औरोंपर भी इसी तरह दावा कर दिया गया होता तो बातकी बातमें सब रुपये निकल आते। और कुछ न होता तो ठाकुरद्वारेमें हाथ तो लगा ही देता। भाई साहबको समझाना तो मेरा काम नहीं, उनके सामने रोब, शर्म और संकोचसे मेरी जवान ही न खुलेगी। उसीके पास चलू,