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संग्राम

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था कि आप भाई साहबको रोकें तो अच्छा हो। वह एक बार घरसे जाकर फिर मुशकिलसे लौटेंगे। भाभीजीको जबसे यह बात मालूम हुई है वह बार-बार भाई साहबके साथ चलनेपर जिद कर रही हैं। अगर भैया छिपकर चले गये तो भाभीके प्राणोंहीपर बन जायगी।

राजे०—इसका तो मुझे भी भय है क्योंकि मैंने सुना है ज्ञानीदेवी उनके बिना एक छन भी नहीं रह सकतीं। पर मैं भी तो आपके भैयाहीके हुक्मकी चेरी हूँ, जो कुछ वह कहेंगे उसे मानना पड़ेगा। मैं अपना देश, कुल, घरबार छोड़कर केवल उनके प्रेमके सहारे यहां आई हूं। मेरा यहाँ कौन है? उस प्रेमका सुख उठानेसे मैं अपनेको कैसे रोकूँ। यह तो ऐसा ही होगा कि कोई भोजन बनाकर भूखों तड़पा करे, घर छाकर धूपमें जलता रहे। मैं ज्ञानीदेवीसे डाह नहीं करती, इतनी ओछी नहीं हूँ कि उनसे बराबरी करूँ। लेकिन मैंने जो यह लोकलाज, कुल मरजाद तजा है यह किस लिये?

कंचन—इसका मेरे पास क्या जवाब है।

राजे०—जवाब क्यों नहीं है पर आप देना नहीं चाहते।

कंचन—दोनों एक ही बात है, भय केवल आपके नाराज होनेका है।

राजे०—इससे आप निश्चिन्त रहिये, जो प्रेमकी आँच सह