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संग्राम

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के लड़केको पढ़ा दिया करो। वह तुम्हें दूध दे देगा।

भृगु—जन्तर लावो मैं बाँध लूँ, पर खूबाके लड़केको मैं न पढ़ा सकूँगा। लिखने-पढ़नेका काम करते-करते सारे दिन योंही थक जाता हूँ। मैं जबतक कंचन सिंहके यहां रहूँगा मेरी तबीयत अच्छी न होगी। मुझे कोई दूकान खुलवा दो।

गुलाबी—बेटा, दूकान के लिये तो पूंजी चाहिये। इस घड़ी तो यह ताबीज बांध लो। फिर मैं और कोई जतन करूँगी। देखो, देवीजीने खाना बना लिया? आज मालकिनने रातको यहीं रहने को कहा है।

(भृगु जाता है और चम्पासे पूछकर आता है,
गुलाबी चौकेमें जाती है।)

गुलाबी—पीढ़ा तक नहीं रखी, लोटेका पानीतक नहीं रखा। अब मैं पानी लेकर आऊँ और अपने हाथसे आसन डालूँ तब खाना खाऊँ। क्यों इतने घमण्डके मारे मरी जाती हो महारानी। थोड़ा इतराओ, इतना आकाशपर दिया न जलायो।

(चम्पा थाली लाकर गुलाबीके सामने रख देती है,

वह एक कौर उठाती है और क्रोधसे थाली

चम्पाके सिरपर पटक देती है।)

भृगु—क्या है अम्मां?