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संग्राम

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चेतन—(ज्ञानीके हाथोंको पकड़कर) प्रिये, तुम्हारे हाथ कितने कोमल हैं, ऐसा जान पड़ता है मानों फूलकी पंखड़ियाँ हैं।

(ज्ञानी झिझककर हाथ खींच लेती है)

प्रिये, झिकको नहीं, यह वासना जनित प्रेम नहीं है। यह शुद्ध, पवित्र प्रेम है। यह तुम्हारी दूसरी परीक्षा है।

ज्ञानी—मेरे हृदयमें बड़े वेगसे धड़कन हो रही है।

चेतन—यह धड़कन नहीं है, विमल प्रेमकी तरङ्गे हैं जो बक्ष के किनारोंसे टकरा रही हैं। तुम्हारा शरीर फूलकी भाँति कोमल है। उस वेगका सहन नहीं कर सकता। इन हाथोंके स्पर्श से मुझे वह आनन्द मिल रहा है जिसमें चन्द्रका निर्मल प्रकाश, पुष्पोंका मनोहर सुगन्ध, समीरके शीतल मन्द झोंके और जल- प्रवाहका मधुर गान, सभी समाविष्ट हो गये हैं।

ज्ञानी—मुझे चक्कर सा आ रहा है। जान पड़ता है लहरोंमें बही जाती हूँ।

चेतन—थोड़ासा सोमरस और निकालो। सञ्जीवनी है।

(ज्ञानी बोतलसे कमण्डलमें उँडेलती है, चेतनदास पी
जाता है, ज्ञानी भी दो तीन घुँट पीती है।)

चेतन—आज जीवन सफल हो गया। ऐसे सुखके एक क्षणपर समग्र जीवन भेंट कर सकता हूँ।