पृष्ठ:संग्राम.pdf/२६०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

संग्राम

२४२

राजे०—(भयभीत होकर) प्रेम दोषोंपर ध्यान नहीं देता। वह गुणों ही पर मुग्ध होता है। आज मैं अन्धी हो जाऊं तो क्या आप मुझे त्याग देंगे।

सबल—प्रिये, ईश्वर न करे, पर मैं तुमसे सच्चे दिलसे कहता हूँ कि कालकी कोई गति, विधाताकी कोई पिशाचलीला, तापोंका कोई प्रकोप मेरे हृदयसे तुम्हारे प्रेमको नहीं निकाल सकता, हां, नहीं निकाल सकता।

(गाता है)

दफ्न करने ले चले थे जब मेरे घरसे मुझे
काश तुम भी झांक लेते रौज्रने दरसे मुझे।
सांस पूरी हो चुकी, दुनियासे रुखसत हो चुका
तुम अब आये हो उठाने मेरे बिस्तरसे मुझे।
क्यों उठाता है मुझे मेरी तमन्नाको निकाल
तेरे दरतक खींच लाई थी वही घरसे मुझे।
हिकाकी शब कुछ यही मूनिस था मेरा, ऐ कज़ा
एक जरा रो लेने दे मिल मिलके बिस्तरसे मुझे।

राजे०—मेरे दिलमें आपका वही प्रेम है।

सबल—तुम मेरी हो जाओगी?

राजे०—और अब किसकी हूं?

सबल—तुम पूर्णरूपसे मेरी हो जाओगी?