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पहला अङ्क

१५

किसी उर्दू कविके शब्दोंमें "यौवन फटा पड़ता था।" कितना कोमल गीत है, न जाने खेतों में कैसे इतनी मिहनत करती है। नहीं यह बात नहीं। खेतों में काम करनेही से उसका चम्पई रंग निखरकर कुन्दन हो गया है। वायु और प्रकाशने उसके सौन्दर्यको चमका दिया है। सच कहा है हुस्न के लिये गहनोंकी आवश्यकता नहीं। उसके शरीरपर कोई आभूषण न था, किन्तु सादगी आभूषणोंसे कहीं ज्यादा मनोहारिणी थी। गहने सौन्दर्यकी शोभा क्या बढ़ायेंगे, स्वयं अपनी शोभा बढ़ाते हैं। उस सादे व्यंजन में कितना स्वाद था? रूपलावण्यने भोजन को भी स्वादिष्ट बना दिया था। मन फिर उधर गया, यह मुझे हो क्या गया है। यह मेरी युवावस्था नहीं है कि किसी सुन्दरी को देखकर लट्टू हो जाऊँ, अपना प्रेम हथेलीपर लिये प्रत्येक सुन्दरी स्त्रीकी भेंट करता फिरूं। मेरी प्रौढ़ावस्था है, ३५ वें वर्ष में हूँ। एक लड़के का बाप हूँ जो ६, ७, वर्षों में जवान होगा। ईश्वरने दिये होते तो ४, ५, सन्तानोंका पिता हो सकता था। यह लोलुपता है, छिछोरापन है। इस अवस्थामें, इतना विचारशील होकर भी मैं इतना मलिन-हृदय हो रहा हूं। किशोरावस्थामें तो मैं आत्मशुद्धिपर जान देता था, फूँक फूँककर क़दम रखता था, आदर्श जीवन व्यतीत करता था और इस अवस्थामें जब मुझे आत्मचिन्तनमें मग्न होना चाहिये, मेरे सिरपर यह