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संग्राम

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चेतन—इस समय न आता तो जीवनपर्यन्त पछताता। क्षमादान मांगने आया हूं।

राजे—किससे?

चेतन—जो इस समय प्राण त्याग रही है।

ज्ञानी—(आंखें खोलकर) क्या वह आ गये? कोई अचलको मेरी गोदमें क्यों नहीं रख देता।

चेतन—देवी, सबके सब आ रहे हैं। तुम ज़रा यह जड़ी मुंहमें रख लो। भगवान चाहेंगे तो सब कल्याण होगा।

ज्ञानी—कल्याण अब मेरे मरने में ही है।

चेतन—मेरे अपराध क्षमा करो।

(ज्ञानीके पैरोंपर गिर पड़ता है)

ज्ञानी—यह भेष त्याग दो। भगवान तुमपर दया करें।

(उनके मुंहसे खून निकलता है और प्राण निकल जाते

हैं, अन्तिम शब्द उनके मुंहसे यही निकलता है

"अचल तू अमर हो।")

राजे०—अन्त हो गया (रोती है) मनकी अभिलाषा मनमें ले गई। पति और पुत्रसे भेंट न हो सकी।

चेतन—देवी थी।

(सबल सिंह, कंचन सिंह, अचल, हलधर सब पाते हैं)

राजे०—स्वामीजी, कुछ अपनी सिद्धि दिखाइये। एक पल