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संग्राम

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कूदन लगे, नहीं तो ऋण लेकर बरसी करने या गहने बनवाने का क्या काम, इतना सब नहीं होता कि अनाज घरमें आ जाय तो यह सब मंसूबे बांधे। मुझे रुपयोंका सूद दोगे, लिखाई दोगे, नजराना दोगे, मुनीमजीकी दस्तुरी दोगे, दसके आठ लेकर घर जाओगे, लेकिन यह नहीं होता कि महीने दो महीने रुक जायं। तुम्हें तो इस घड़ी रुपयेकी धुन है, कितना ही सम- झाऊँ, ऊंच-नीच सुझाऊं मगर कभी न मानोगे। रुपये न दूं तो मनमें गालियां दोगे और किसी दूसरे महाजनकी चिरौरी करोगे।

हलधर―नहीं सरकार यह बात नहीं है, मुझे सचमुच ही बड़ी जरूरत है।

कंचन―हां हां तुम्हारी जरूरतमें किसे सन्देह है, जरूरत न होती तो यहां आते ही क्यों, लेकिन यह ऐसी जरूरत है जो टल सकती है, मैं इसे जरूरत नहीं कहता, इसका नाम ताव है जो खेतीका रंग देखकर सिरपर सवार हो गया है।

हलधर―आप मालिक हैं जो चाहें कहें। रुपयोंके बिना मेरा काम न चलेगा। बरसीमें भोज-भात देना ही पड़ेगा, गहना पाती बनवाये बिना बिरादरीमें बदनामी होती है, नहीं तो क्या इतना मैं नहीं जानता कि कर लेनेसे भरम उठ जाता है। करज करेजेकी चीर है। आप तो मेरी भलाई के लिये इतना