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संग्राम

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राजेश्वरी--(मनमें) ऐसे तो बड़े दयालु और सज्जन आदमी हैं लेकिन निगाह अच्छी नहीं जान पड़ती। इनके साथ कुछ कपट-व्योहार करना चाहिये। देखूं किस रंगपर चलते हैं। (प्रगट) क्या करूँ भाग्यमें जो लिखा था वह हुआ।

सबल--भाग्य तो अपने हाथका खेल है। जैसे चाहो वैसा बन सकता है। जब मैं तुम्हारा भक्त हूँ तो तुम्हें किसी बातकी चिंता न करनी चाहिये। तुम चाहो तो कोई नौकर रख लो। उसकी तलब मैं दे दूँगा, गाँवमें रहने की इच्छा न हो तो शहर चलो, हलधरको अपने यहां रख लूँगा, तुम आरामसे रहना। तुम्हारे लिये मैं सब कुछ करनेको तैयार हूँ, केवल तुम्हारी दया- दृष्टि चाहता हूँ। राजेश्वरी, मेरी इतनी उम्र गुजर गई लेकिन परमात्मा जानते हैं कि आजतक मुझे न मालूम हुआ कि प्रेम क्या वस्तु है। मैं इस रसके स्वादको जानता ही न था, लेकिन जिस दिनसे तुमको देखा है प्रेमानन्दका अनुपम सुख भोग रहा हूँ। तुम्हारी सुरत एक क्षणके लिये भी आंखोंसे नहीं उतरती। किसी काममें जी नहीं लगता, तुम्हीं चित्तमें बसी रहती हो। बगीचेमें जाता हूं तो मालूम होता है कि फूलमें तुम्हारी ही सुगंधि है, श्यामाकी चहक सुनता हूँ तो मालूम होता है कि तुम्हारी ही मधुर ध्वनि है। चन्द्रमाको देखता हूँ तो जान पड़ता है कि वह तुम्हारी ही मूर्ति है। प्रबल उत्कण्ठा होती है कि चलकर तुम्हारे