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संग्राम

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मंगरू--साधु आदमियोंको बहकाकर क्या करते हैं?

फत्तू--भीख मगवाते हैं और क्या करते हैं। अपना टहल करवाते हैं, बर्तन मंजवाते हैं, गांजा भरवाते हैं। भोले आदमी समझते हैं बाबाजी सिद्ध हैं, प्रसन्न हो जायंगे तो एक चुटकी राख में मेरा भला हो जायगा, मुकुत बन जायगी वह घातेमें। कुछ कामचोर निखट्टू ऐसे भी हैं जो केवल मीठे पदार्थों के लालचमें साधुओंके साथ पड़े रहते हैं। कुछ दिनोंमें यही टहलुवे सन्त बन बैठते हैं और अपने टहलके लिये किसी दूसरेको मूंड़ते हैं। लेकिन हलधर न तो पेटू ही है, न कामचोर ही है।

हरदास--कुछ तुम्हारा मन कहता है वह किधर गया होगा। तुम्हारा उसके साथ आठों पहरका उठना-बैठना है।

फत्तू--मेरी समझमें तो वह परदेश चला गया। २००)कंचन सिंहके आते थे। ब्याज समेत २५०) हुए होंगे। लगानकी धौंस अलग। अभी दुधमुहा बालक है, संसारका रंग ढङ्ग नहीं देखा, थोड़ेमें ही फूल उठता है और थोड़े ही हिम्मत हार बैठता है। सोचा होगा कहीं परदेश चलूं और मेहनत मजूरी करके सौ दो सौ ले आऊ। दो चार दिन में चिट्ठी पत्तरी आयेगी।

मंगरू--और तो कोई चिन्ता नहीं, मर्द है जहाँ रहेगा वहीं कमा खायगा, चिन्ता तो उसके घरवालीकी है। अकेले कैसे रहेगी?