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दूसरा अङ्क

८१

मैं भी अपने रूप-रङ्ग के हाथों मारी जा रही हूँ।

सलोनी--क्या नींद नहीं आती बेटी।

राजे०--नहीं, काकी मन बड़ी चिन्तामें पड़ा हुआ है। भला क्यों काकी, अब कोई मेरे सिरपर तो रहा नहीं, अगर कोई पुरुष मेरा धर्म बिगाड़ना चाहे तो क्या करूँ?

सलोनी--बेटी गाँवके लोग उसे पीसकर पी जायँगे।

राजे०--गांववालोंपर बात खुल गई तब तो मेरे माथेपर कलङ्क लग ही जायगा।

सलोनी--उसे दण्ड देना होगा। उससे कपट-प्रेम करके उसे विष पिला देना होगा। विष भी ऐसा कि फिर वह आँखें न खोले। भगवानको, चन्द्रमाको, इन्द्रको, जिस अपराधका दंड मिला था क्या हम उसका बदला न लेंगी। यही हमारा धरम है। मुँहसे मीठी-मीठी बातें करो पर मनमें कटार छिपाये रखो।

राजे०--(मनमें) हां अब यही मेरा धरम है। अब छल और कपटसे ही मेरी रक्षा होगी। वह धर्मात्मा सही, दानी सही, विद्वान सही। यह भी जानती हूं कि उन्हें मुझ से प्रेम है, सच्चा प्रेम है। यह मुझे पाकर मुग्ध हो जायँगे, मेरे इसारोंपर नाचेंगे, मुझपर अपने प्राण न्यौछावर करेंगे। क्या मैं इस प्रेमके बदले कपट कर सकूँगी। जो मुझपर जान देगा, मैं उसके साथ कैसे दगा करूंगी। यह बात मरदोंमें ही है कि जब वह किसी दूसरी