सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:संत काव्य.pdf/११४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१०१
भूमिका

भीलडी मातंगी रांणी, मृघलौ आंणी ठांणी।
चरणं विहूणौं मृघलौ आण्यौं सीस सींग मुष जाइ न जाण्यौं॥४॥[]

सिद्धाचार्य भुसुकृपा ने भी अपने एक चर्यापद में मन को 'हरिण' कहा है। और 'तरसन्ते हरिणार खुर न दीसई' बतलाया है।[]

(२) समंदर लागीं आगि, नदियाँ जलि कोइला भई।
देखि कबीरा जागि, मंछी रूषां चढ़ि गई॥[]

अर्थात् समुद्र में आग लग गई (शरीर के भीतर ज्ञान विरह की आग प्रज्वलित हो उठी) और नदियाँ जलकर भस्म हो गईं (सभी सांसारिक संबंध नष्ट हो गए)। अरे कबीर अब जागृत होकर देख ले, मछली वृक्ष पर चढ़ गई है (मन अब ऊंची दशा प्राप्त कर चुका है)। गुरु गोरखनाथ के एक पद को भी दो पंक्तियाँ कबीर साहब की इस साखी से बहुत कुछ मिलती-जुलती हैं जैसे,

"डूंगरि मंछा जलि सुसा पाणी मैं दौं लागा।
अरहट वहै तृसालवाँ, सूलै काँटा भागा॥३॥"[]
(३) कुंजर कौं कोरी गिलि बैठी, सिंघहि बाइ अधानौ स्याल।
मछरी अग्नि मांहि सुख पायौ, जलमै हुती बहुत बेहाल॥
पंगु चढ्यौ पर्वत कै ऊपर, मृतकहि देषि डरानौ काल।
जाकौ अनुभव होइ सुजाने, सुन्दर ऐसा उलटा ष्याल॥३॥[]

अर्थात् मस्त हाथी को एक कीड़ी ने निगल लिया (काम को बुद्धि ने जीत लिया) सिंह को खाकर शृगाल पुष्ट हो गया (जीव ने संशय पर

पूर्ण विजय प्राप्त कर ली), मछली को आग में ही सुख मिलने लगा


  1. 'गोरख बानी', पृष्ठ ११९ (पद २६)।
  2. चिर्या, पद ६ (दे॰ पद सं॰ २३ भी)।
  3. 'कबीर ग्रंथावली', पृष्ठ १२, (सा॰ १०)।
  4. 'गोरखबानी', पृष्ठ ११२ (पद २०)।
  5. 'सुन्दर ग्रंथावली', पृष्ठ ५१० (सं॰ ३)।