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संत-काव्य

(मनसा ब्रह्माग्नि में आनंदमग्न हो गई), वह जल में दुःखी रहती थी (काया में उसे सदा बेचैनी रहा करती थी), पंगु पुरुष पर्वत पर चढ़ गया (शांत मन चिदाकाश में पहुँच निश्चल हो गया) और मृतक को देखकर काल भयभीत हो गया (जीवन्मुक्त के समक्ष काल का प्रभाव जाता रहा) इन बातों को वही जानता है जिसे स्वानुभूति मिल चुकी है। दूसरों के लिए तो यह उलटा विचार ही कहा जायगा।

कमल माहिं पाणी भयौ, पाणी मांहे भान।
भान मांहिं ससि मिलि गयौ, सुन्दर उलटौं ज्ञान॥९॥[]

अर्थात् कमलरूपी हृदय में पानीरूपी प्रेम का आविर्भाव हुआ और वह सूर्यरूपी आत्मज्ञान का आधार बन गया। फिर उसी सूर्य रूपी ज्ञान में चंद्ररूपी ब्रह्मानंद की भी शीतलता मिल गई जिस कारण अक्षय सुख मिलने लगा और यह उलटा ज्ञान कहलाया।

उलटबासीयों के ये अवतरण अधिकतर साधना एवं अनुभूति की चर्चा से संबंध रखते हैं। संतों ने, इसके सिवाय, कुछ उलटबासियां अपनी भीतरी कठिनाइयों के वर्णन तथा सांसारिक मनुष्यों कीं माया-जनित दुरवस्था के परिचय में भी लिखी हैं। इन रचनाओं में उन्होंने 'कोई विरला बूझे', 'जो बू सो गुरु हमारा', 'जो यहि पद का अर्थ लगावै ज्ञानी' जैसे वाक्यों के प्रयोग किये हैं जिनसे प्रकट होता है कि वे इन्हें जानबूझकर समस्यामूलक रूप दे रहे हैं और इसके लिए उन्हें कुछ गर्व का अनुभव भी होता है। किन्तु इस प्रकार की उक्तियों के प्रयोग, वस्तुतः, सिद्धों के युग से ही होते चले आ रहे हैं और ये एक प्रकार से, इस शैली के अंगरूप से हो गए हैं। सिद्ध ढेढणपा के एक चर्यापद (सं॰ ३३) में आये हुए वाक्य "ढ़ेंढण पाएर गीत विरले बूझअ" से तो यह जान पड़ता है कि उन्होंने अत्यन्त गूढ़ बना दिया है। इसी प्रकार गुरु गोरखनाथ भी एक स्थल पर


  1. 'सुन्दर ग्रंथावली', पृष्ठ ७४९ (सा॰)।