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भूमिका

कहते हैं कि 'बूझौं पंडित ब्रह्म गियानं, गोरष बोले जाण सुजान'[१] जिससे प्रकट होता है कि वे न केवल अपने कथन को ब्रह्मज्ञान कहते हैं अपितु स्वयं अपने को भी सुजान एवं ज्ञानवान् बतलाते है। इसलिए संतों को इस बात के लिए सहसा घमंडी अथवा रहस्यगोप्ता कह देना उचित नहीं प्रतीत होता। जान पड़ता है कि अपने भावों को व्यक्त करते समय उन्होंने अन्य अनेक शैलियों के अतिरिक्त उलटबासियों को भी प्रचलित समझकर अपना लिया था। इनके कारण न तो उनमें कोई मौलिकता आ जाती है और न वे किसी प्रकार की निंदा के ही पात्र समझे जा सकते हैं।

प्रकृति-चित्रण

संतों की साधना अंतर्मुखी वृत्ति के आधार पर चलती थी और वे अधिकतर अपनी अनुभूति की अभिव्यक्ति में ही लगे रहते थे बाह्य जगत् की चर्चा छेड़ते समय भी वे बहुधा अहमन्य व्यक्तियों वा पाखंडियों आदि के विविध आचरणों के उल्लेख कर दिया करते थे और धार्मिक एवं सामाजिक भेदभावों के बाहुल्य पर अपनी टीका-टिप्पणी कर उनसे बचने का उपदेश देते रहते थे। प्राकृतिक दृश्यों के प्रसंग वे केवल ऐसे अवसरों पर ही लाते थे जहाँ उन्हें सर्वव्यापी परमात्मा के अस्तित्त्व एवं प्रभाव की ओर संकेत करना रहता था अथवा अपनी विरह दशा के वर्णन वा अन्योक्तियों की रचना करते समय उनका ध्यान इधर चला जाता था। इसलिए प्राकृतिक वस्तुओं के स्वरूपादि के वर्णन संबंधी उल्लेख उनकी रचनाओं में बहुत कम देखने को मिलते हैं। उनके सांगरूपकों में हमें इस प्रकार के उदाहरण कभी-कभी अवश्य मिल जाते हैं जिनमें उनके एकाग्र निरीक्षण की शक्ति दीख पड़ती है। परंतु इस प्रकार की रचनाएं भी सदा प्राकृतिक


  1. 'गोरख बानी', पृष्ठ १०८ (पद १८)।