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संत-काव्य

वस्तुओं से ही संबंध नहीं रखतीं और जो ऐसी होती हैं उनमें भी परंपरा का ही पालन अधिक रहा करता है। संतों ने जहाँ सावन, बसंत, आदि शीर्षक देकर कविता की है अथवा जहाँ बारहमासे आदि लिखे हैं वहाँ भी कुछ ऐसी प्रवृत्ति दीख पड़ती है। बहुत से रीतिकालीन अथवा इधर के संतों ने तो ऐसी प्रचलित शैली का निरा अनुकरण करने में ही इसकी इतिश्री मान ली है।

फिर भी कुछ प्रतिभाशाली संतों की रचनाओं में हमें प्रकृति-चित्रण के बड़े सुन्दर उदाहरण मिल जाते हैं। ये विशेषकर उन अवसरों से संबंध रखते हैं जब कि उनके रचयिताओं की अनुभूति कुछ तीव्र रही होगी अथवा उनके भीतर उल्लास की मात्रा के अधिक हो जाने के कारण, भावावेश की दशा आ पहुँची होगी और वे बाह्य जगत् के साथ तल्लीनता स्वभावतः स्थापित करने लगे होंगे। ऐसी दशा में रूपकों का विधान आप से आप होने लगता है और जो-जो काल्पनिक चित्र कवि के मानस पटल पर चित्रित हुए रहते हैं वे ठीक-ठीक अपने मूल रंग एवं रेखा में ही पाठक वा श्रोता के भी आगे प्रत्यक्ष हो जाते हैं। उदाहरण के लिए गुरु नानक देव ने अपने एक पद के द्वारा परमात्मा के प्रति "आरती" प्रस्तुत करने की अनावश्यकता दिखलाई है और उसके कारण बतलाते समय एक स्पष्ट व सजीव चित्र अंकित कर दिया है जिसमें उनके निजी अनुभव की भी झलक मिल जाती है और वह दूसरे को भी उसी प्रकार प्रभावित किये बिना नहीं रह पाती। जैसे

(१) गगन मैं थालु रविचंदु दीपक बने,
तारिका मंडल जनक मोती।
धूपु मल आनलो पवणु तँवरो करे,
सकल बनराइ फूलंत जोती॥१॥