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संत-काव्य

में अंतर का पड़ जाना स्वाभाविक था। दूसरे उनके अधिकतर अशिक्षित अथवा अर्द्धशिक्षित रहने के कारण उनकी भाषा का सुव्यवस्थित रूप में प्रयुक्त होना भी संभव न था। इसके सिवाय संत लोग अपनी भाषा से अधिक उसमें व्यक्त किये जाने वाले भाव को हो महत्व दिया करते थे जिस कारण उनके विभिन्न प्रयोगों में अतावातावश कई प्रकार की त्रुटियां भी आ जाया करती थीं। फिर, संत लोग भ्रमणशील भी हुआ करते थे और जहाँ। कहीं भी वे जाते थे वहां की जनता के प्रति कुछ उपदेश देते समय अथवा कम से कम वहाँ के अन्य संतों के साथ सत्संग करने के अवसरों पर उन्हें स्थानीय भाषा का भी कुछ न कुछ व्यवहार करना पड़ जाता था। कई संतों की भाषा में विविधता के आ जाने का एक यह भी कारण जान पड़ता है कि उन्होंने कभी कभी जानबूझ कर ऐसा किया है। उदाहरण के लिए संत सुंदरदास ने अपनी रचनाओं को कभी-कभी पंजाबी, गुजराती अथवा पूरबी भाषाओं में भी लिखने की चेष्टा की है। इन संतों की भाषा के शुद्ध रूप ठहराने में भी एक कठिनाई इस कारण पड़ जाती हैं कि इनमें जितने लोग बहुत प्रसिद्ध हो गए हैं उनके भिन्न भाषा-भाषी अनुयायियों ने उनकी रचनाओं के स्वरूप को मनमाने ढंग से बदल भी दिया है जिससे उनकी प्रामाणिकता में कभी-कभी पूरा संदेह तक होने लगता है तथा उनके मौलिक रूप का निश्चय करना नितांत कठिन हो जाता है। यह कठिनाई उन संत कवियों की रचनाओं के विषय में और भी अधिक बढ़ जाती है जिनका संबंध केवल मौखिक परंपरा से रहा है।

संतों की रचनाओं में प्रयुक्त भाषा को इसी कारण, बहुत से लोग एक प्रकार की खिचड़ी वा सधुक्कड़ी भाषा का नाम दे दिया करते हैं और उनके व्याकरण, पिंगल वा परंपरा के बंधनों से अधिकतर मुक्त रहने के कारण, उन्हें उचित महत्त्व देते नहीं जान पड़ते। परंतु संतों को भाषा पर गंभीरतापूर्वक मनन करने के विचार का केवल इसीलिए परि-