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संत-काव्य


होने लगता है जिनका अन्यत्र सुलभ होना किसी संयोग की ही बात है।

संत काव्य के रचयिताओं की भाषा पर विचार करना हमें पहले, कतिपय भाषा-क्षेत्रों के ही आधार पर अधिक युक्ति-संगत प्रतीत होता है और ऐसी प्रवृत्ति होती है कि कबीर साहब, दास, बुल्ला, गुलाल, भीखा, धरनी, शिवनारायण, कमाल, दरिया, किनाराम आदि को भोजपुरी क्षेत्र में रख कर मलूकदास, जगजीवन, दूलन, भीषम, पलटू आदि को अवधी क्षेत्र का मानकर, गुरु नानक, गुरु अंगद, गुरु अमरदास, गुरु रामदास, गुरु अर्जुन, गुरु तेगबहादुर, गुरु गोविंद, बुल्लेशाह, फरीद, बावालाल, गरीबदास आदि को पंजाबी क्षेत्र का निवासी समझ कर, दादू, रज्जब, संदरदास, रामचरण पीपा, आनन्दघन, भीषजन, वाजिद, धन्ना, वषना, दीनदरवेश आदि को राजस्थानी क्षेत्र में उत्पन्न जान कर तथा इसी प्रकार तुलसी साहब, शिवदयाल, सालग्राम, यारी, बावरी आदि को ब्रजभाषा और खड़ी बोली के क्षेत्र से संबद्ध मान कर चलें और शेष में से भी चरणदास और उनकी शिष्याओं को मेवाती क्षेत्र तथा सिंगाजी को नीमाड़ी क्षेत्र का समझ कर उनकी भाषाओं में अंतर ढूंढ निकालें। परन्तु यह कार्य उतना सरल नहीं है जितना ऊपर से दीख पड़ता है और जितनी ही दूर हम इस गहन बन में प्रवेश करते जाते हैं उतनी ही अधिक कठिनाइयाँ हमारे सामने आती जाती हैं। अंत में हमें जान पड़ता है कि संतों की भाषा, कम से कम शब्द भांडार एवं वर्णन शैली के अनुसार, मूलतः एक है और क्रियापद, संयोजक वा कारक चिन्ह संबंधी जो कुछ अंतर दीख पड़ते हैं वे वस्तुतः उतने स्पष्ट एवं निश्चित नहीं हैं जिनके आधार पर हम उसे भिन्न-भिन्न वर्गों में विभाजित कर सकें। इसके सिवाय एक ही कबीर साहब की रचनाओं को कभी हम 'आदिग्रंथ' के पंजाबी रूप में पाते हैं तो 'कबीर ग्रंथावली' के अन्तर्गत राजस्थानी वेशभूषा में देखते हैं और एक तीसरे संग्रह में वे ही रचनाएं अवधी अथवा भोजपुरी तक के क्रियापदों से संयुक्त होकर सामने आती है। इसी प्रकार एक ओर जहां अवधी क्षेत्र के पलटू