विशेषतः उड़ीसा एवं बंगाल प्रांतों से ही था। फिर भी जनश्रुति के अनुसार उन्होंने ब्रजमंडल से लेकर जयपुर की ओर तक पर्यटन भी किया था जहां से लौटते समय मार्ग में उन्हें डाकुओं ने लूटा था। इस प्रकार, हो सकता है कि ब्रजमंडल के तत्कालीन निम्बार्क संप्रदायी वातावरण का भी उन पर कुछ न कुछ प्रभाव पड़ा हो तथा उक्त सहजयान के प्रमुख केन्द्र उत्कल क्षेत्र से संबंध रहने के कारण, उनकी वैष्णवी भक्ति ने बौद्ध-मत गर्भित रूप भी धारण कर लिया हो। पश्चिमी प्रांतों के निवासी संत सबना एवं संत बेनी का तथा दक्षिणी भारत के त्रिलोचन एवं संत नामदेव का भी इसी प्रकार, नाथ संप्रदाय की कई बातों द्वारा प्रभावित हो जाना कोई असंभव बात नहीं थी। गोरखनाथ के साथ बारकरी संप्रदाय के संतों का संबंध तो उसके प्रमुख अनुयायियों द्वारा भी स्वीकृत किया जा चुका है।
जान पड़ता है कि वारकरी संप्रदाय का प्रचार अधिक बढ़ जाने के साथ-साथ उसका प्रधान केन्द्र पंढरपुर का भी महत्त्व वढ़ता गया और जिस प्रकार उड़ीसा की पुरुषोत्तम पुरी तथा उत्तर प्रदेश के ब्रजमंडल की ओर भगवद्भक्तों की तीर्थयात्रा होती आ रही थी उसी प्रकार उनका एक लक्ष्य उस काल से पंढरपुर भी हो गया। अतएव, किनकेड एवं पारसनिस जैसे इतिहासों का अनुमान है "मुस्लिम संत कबीर साहब भी पंढरपुर की ख्याति के कारण उसकी ओर आकृष्ट हुए थे" और, हो सकता है कि उन्होंने उसकी तीर्थयात्रा भी की थी। जो हो, संत मत को कबीर साहब द्वारा सबसे अधिक जीवनशक्ति मिली और उनके हाथों ही सर्वाधिक बल ग्रहण करने के कारण, वह भविष्य में भी प्रचलित हो सका। कबीर साहब एवं उनके समसामयिकों की उपलब्ध रचनाओं के अंतर्गत हम प्रायः उन सभी बातों का समावेश पाते हैं जो संतमत का आधारस्वरूप नमकी जाती हैं और जिनको उनके पीछे आने वाले संतों ने अधिकतर पुष्पित एवं पल्लवित भर किया है। कबीर साहब के प्रति इसी कारण उनके परवर्ती लगभग सभी संतों न अपनी आस्था एवं श्रद्धा प्रकट की है और