जीवों का मांस नहीं बेचते थे। इन्हें जीवहिंसा से घृणा थी, किंतु अपने पैतृक व्यवसाय का इन्होंने त्याग भी नहीं किया था। इन्हें शालग्राम की मूर्ति का पूजने वाला तथा साथ सेवक भी कहा जाता है और यह भी प्रसिद्ध है कि जगन्नाथपुरी की यात्रा इन्होंने अनेक कष्टों को झेलते हुए, की थी। इतका केवल एक पद 'आदि ग्रंथ' में मिलता है जो इनके सरल हृदय का परिचायक है तथा केवल इसीके आधार पर इन्हें उच्चकोटि के संतों में गिनने की परंपरा बहुत दिनों से चली आती है। कुछ लोग इन्हें सेहवान (सिंध) का निवासी भी बतलाते हैं, परन्तु इसके लिए कोई पुष्ट प्रमाण देते नहीं जान पड़ते।
पद
चिपकंनिआ कै कारनै, इकु भइआ भेषधारी।
कामारथी सुआरथी बाकी पैज सँवारी॥१॥
तब गुन कहा जगत गुरा, जउ करमु न नासै।
सिंध सरन कत जाईअै, जउ जंबुकु ग्रासै॥रहाउ॥
एक बूंदुं जल कारने, चात्रिक दुषु पावै।
प्रान गए सागर मिल, फुनि कामि न आवै॥२॥
प्रान जु थाके थिरु नहीं, कैसे विरमावउ।
बूड़ि मूए ना मिलै, कहु काहि चढ़ावउ॥३॥
मैं नाहीं कछु हउ नहीं, किछु आहि न मोरा।
अउसर लजा राषि लेहु, सधना जनु तोरा॥४॥
विषकंनिआ....सवारी = राजकुमारी के साथ विवाह करने को इच्छा जिस युवक बढ़ई ने उसके अभीष्ट वर विष्णु भगवान् की भांति कृत्रिम चतुर्भुजी रूप धारण कर लिया था और शत्रु द्वारा भयभीत हो जाने पर, फिर उन्हीं भगवान् को शरण भी ली थी उसे उन्होंने (भगवान्) पूरी सहायता प्रदान की थी। तब....नासै = वैसे तुम्हारे शरणागत