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प्रारंभिक युग

वत्सल के गुण अब क्या हो गए? प्रान...विरमावउ = अपने हार मानकर थक गए हुए प्राणों को किस प्रकार रोक रखूं। मैं...मोरा = तो मैं ही, तुमसे पृथक कुछ हूं, न मेरे पास ही कुछ है और न जो कुछ मेरा कहा जा सकता है वही वस्तुतः मेरा है। अउतर... लेहु = ऐसे विषम अवसर पर मैं, अपनी लाज बचाने के लिए, तुम्हारी ही प्रार्थना करता हूं।

संत वेणी

संत वेणी के समय अथवा जीवन घटनाओं का प्रायः कुछ भी पता नहीं चलता। सिखों के पांचवें गुरु अर्जुन देव ने अपने एक पद में इनका नाम लिया है जिस कारण ये उनके पीछे अर्थात् सं॰ १६२० -१६६३ के इधर के नहीं कहे जा सकते। उक्त गुरु ने संत वेणी के तीन पदों को भी 'आदि-ग्रंथ' में संगृहीत किया था जिनकी भाषा वा विचारधारा के अनुसार ये पुराने ही ठहरते हैं। ये संभवतः किसी पश्चिमी प्रांत के ही निवासी थे और नाथ संप्रदाय के सिद्धांतों वा कम से कम उसकी शब्दावली से भलीभांति परिचित थे। इनके विषय में उपलब्ध सामग्री के आधार पर इतना ही अनुमान किया जा सकता है कि ये विक्रम की चौदहवीं शताब्दी में वर्तमान थे।

पद

साधना स्वरूप

(१)

इड़ा पिंगुला अउर सुषुमना, तीन बसहि इक ठाई।
वेणी संगमु तंह पिरागु, मनु भजनु करे तिथाई॥१॥
संत तहाँ निरंजन रामु हैं, गुरगामि चीन्हें बिरला कोइ।
तहा निरंजनु रमईआ होइ ॥रहाउ॥
देव स्थानै किआ नीसाणी, तह बाजे सबद अनाहद वाणी।
लह चंदु न सूरजु पउणु न पाणी, सावी जागी गुरमुषि जाणी॥२॥
उपजै गिआनु दुरमति छीजै, अंम्रित रस गगनंतर भीजै।