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संत काव्य

एसु कला जो जाणै भेउ, भेटे तासु परम गुरदेउ॥३॥
दसम दुआरा अगम अपारा, परम पुरष की घाटी।
ऊपरि हाटु हाट परि आला, आले भीतरि थाती॥४॥
जागतु रहै सु कबहु नसोबै, तीन तिलोक समाधि पलोवै।
बीज मंत्र लै हिरदै रहँ, मनूआ उलटि सुन महि गहै॥५॥
जागतु रहै अलीआ भाषै, पाँचउ इंद्री बसिकरि राषै।
गुरकी साषी राषै चीति, मनु तनु परीति॥६॥
कर पलव साबा बोचारे, अपना जनमु न जुये हारे।
असुर नदी का बंधै मूल, पछिम फेरि चडाव सूरु।
अरु जरे सु नि भरै, जगनाथ सिउ गोसटि करें॥७॥
चउ सुष दीवा जोति दुआर, पलू अत मूलु विचकार।
सरब कला ले आये रहँ, मनु मागकु रतना महि गुहै॥८॥
मसतकि पदभु दुआ मणी, माहि निरंजनु त्रिभवण पणी।
पंच सबद निरमाइल बाजे, ढुलके चबर संघ घन गाजे।
दलि मलि वैतहु गुरमुषि गिआनु, वेणी जाचं तेरा नामु॥९॥

पिरागु = प्रयाग तीर्थ। तिथाई = यहीं। साथी जागो = परिचय प्राप्त किया। एसुभेउ = इस युक्ति का जो रहस्य जान लेता है। घाटो = प्रवेश। हाट = विशिष्टस्थान। आला = तीखा। घाती = वास्तविक पूंजी। पलोवँ = पिरो देवे। मनूआ...गहै= मन को उलट कर शून्य में स्थिर कर देवे। अत्यकिसन परीति = ईश्वर प्रीत्यर्थ। बोलके = ढुरता रहे।

विडंबना

(२)

तनि चंदनु मसतकि पाती, रिद अंतरि करतलकाती।
ठग दिसटि वगा लिव लागा, देषि वैसनो प्रान मुषभागा॥१॥
कलि भगवत बंद चिरामं, क्रूर दिसटि रता निसि बादं॥रहाउ॥
नित प्रति इसनानु सरीरं, दुइ धोती करम मुषि षीरें।