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प्रारंभिक युग

प्रकट किया जाता है और उनमें आये हुए पद्यों के पाठभेद भी अभी तक प्रचलित हैं।

कबीर पंथ के अनुयायियों ने 'बीजक' नामक संग्रह को सब से अधिक महत्त्व दिया है और उनका कहना है कि कबीर-शिष्य धर्मदास ने इसे सं॰ १५२१ में पूरा कर कबीर वचनों को सुरक्षित किया था। परन्तु 'बीजक' की अभी तक कोई प्राचीन प्रामाणिक हस्तलिखित प्रति नहीं मिली और न धर्मदास का ही जीवन-काल निश्चित रूप से आज तक जाना जा सका है। इसके सिवाय, इसमें संगृहीत कई पद्यों के भाव एवं भाषा पर ध्यानपूर्वक विचार करने से भी, प्रतीत होने लगता है कि यह पूर्णतः प्रामाणिक नहीं हो सकता। इसमें संगृहीत कुछ रचनाओं पर इधर के कवियों की कृति होने का भी संदेह किया जा सकता है। इसके अनेक पद्यों में लक्षित होने वाली भाषा की कृत्रिमता एवं भावों की दुरूहता तथा सांप्रदायिक आग्रह की प्रवृत्ति भी इसके कबीर-रचित होने में बाधा पहुँचाती हैं। फिर भी इसकी रचनाओं के अंतर्गत कबीर बानियों का एक बहुत बड़ा अंश किसी न किसी रूप में पाया जा सकता है। कबीर साहब की प्रामाणिक रचनाओं का संग्रह न कहे जा सकने पर भी कबीर पंथ का यह सब से प्रामाणिक ग्रंथ है और उसके अध्ययन के सकता है। लिए महत्वपूर्ण सिद्ध हो

सिखों के 'आदिग्रंथ' में भी कबीर साहब के लगभग सवा दो सौ पद एवं ढाई सौ साखियाँ संगृहीत हैं जिनका पाठ प्राचीन है। उनमें दीख पड़ने वाली भाषा की प्राचीनता तथा भावों की सादगी व स्वाभाविकता उनके कबीर-कृत कहे जाने में सहायता पहुँचाती हैं। परन्तु इस संग्रह में आये हुए सभी पद्यों की प्रामाणिकता में भी हमें तब संदेह होने लगता है जब हम देखते हैं कि उनमें से कुछ अवश्य दूसरों की रचनाए होंगी जिन्हें, संग्रहकर्त्ताओं ने भ्रमवश कबीर कृत मानकर इसमें स्थान दे दिया होगा। ऐसे पद्यों की संख्या अधिक नहीं हूँ और यदि ये सावधानतापूर्वक निकाले